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Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.)

Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.)

Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. )

Chaakshusha - Chaamundaa  (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.)

Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.)

Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. )

Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) 

Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.)

Chuudaalaa - Chori  ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.)

Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.)

Chhaaga - Jataa  (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.)

Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.)

Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.)

Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) 

Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.)

Jayadhwaja - Jara  ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. )  

Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.)

 

 

अंतर्जाल पर जटायु की कथा

http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%9F%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A5%81

 

जटायु एवं सम्पाति के माध्यम से उच्च मन की दो विशिष्ट शक्तियों का चित्रण

 - राधा गुप्ता

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

जटायु एवं सम्पाति रामकथा के दो विशेष पात्र हैं। दोनों को गृध्रराज कहा गया है। दोनों भाई-भाई हैं परन्तु रामकथा में दोनों का प्रवेश अलग-अलग समय पर दर्शाया गया है।

     जटायु का प्रवेश रामकथा में (अरण्यकाण्ड, सर्ग 49-51) उस समय होता है जब राम और लक्ष्मण के दूर चले जाने से रावण सीता का हरण करता है और अपहृत सीता रावण की कैद से छूटने के के लिए सहायतार्थ पुकारती हुई करुण विलाप करती है। वृक्ष पर सोए हुए गृध्रराज जटायु सीता की रक्षा हेतु तुरन्त तत्पर होकर पहले तो रावण को सीता की मुक्ति हेतु अनेक प्रकार से समझाते हैं परन्तु बाद में रावण के न मानने पर उसे युद्ध के लिए ललकारते हैं। दोनों का परस्पर युद्ध होता है परन्तु प्राणपण से लडते हुए जटायु का प्रबल रावण वध कर देता है।

     सम्पाति का प्रवेश रामकथा में (किष्किन्धा काण्ड, सर्ग 56-63) उस समय होता है जब रावण द्वारा अपहृत सीता लंकापुरी में कैद हो जाती है और सीता की खोज हेतु सुग्रीव द्वारा भेजे गए गज, गवय, गवाक्ष, गन्धमादन, अंगद, हनुमान, जाम्बवान तथा तार प्रभृति वानर सीता को खोजते खोजते थक जाते हैं परन्तु सीता के न मिलने से निराश होकर अन्त में मृत्यु को ही एकमात्र उपाय मानकर मरणान्त उपवास के लिए बैठ जाते हैं। सीता हरण से सम्बन्धित समस्त प्रसंगों पर जब वे वानर परस्पर बातचीत करते हैं, तब वहीं विन्ध्य पर्वत पर बैठे हुए गृध्रराज सम्पाति अपने छोटे भाई जटायु के वध का समाचार सुनकर अत्यन्त व्यथित हो जाते हैं और वानरों के साथ तत्सम्बन्धित वार्तालाप आरम्भ करते हैं। वानरों से सीताहरण के समस्त वृत्तान्त को सुनकर और सीता की प्राप्ति हेतु उन्हें अत्यन्त व्यग्र एवं उत्साहित देखकर सम्पाति यथोचित दिशा निर्देश देते हुए कहते हैं कि सीता रावण के अन्तःपुर में कैद हैं और राक्षसियों से घिरी हैं। इस दस योजन विस्तृत समुद्र को लांघकर, लंका में पहुँचकर तुम सीता का दर्शन अवश्य कर सकोगे। इतना कहते ही सम्पाति के पंख, जो जल चुके थे, पुनः उग आते हैं और सम्पाति आकाश में उड जाते हैं।

कथा की प्रतीकात्मकता एवं तात्पर्य

     जटायु और सम्पाति उच्च मन में रहने वाली उन विशिष्ट शक्तियों के प्रतीक हैं जो पवित्रता (सीता) की रक्षा की अभिलाषी हैं, आकांक्षी हैं। अभिलाषी अथवा आकांक्षी होने के कारण ही इन्हें गृध्र कहा गया है क्योंकि संस्कृत में गृध् धातु का अर्थ ही है अभिलाषी होना, आकांक्षी होना (उणादि कोश 2 24 के अनुसार गृध्यति अभिकांक्षति इति गृध्रः)। चूंकि पवित्रता की रक्षा की अभिलाषा आकांक्षा सभी अभिलाषाओं में श्रेष्ठतम होती है, इसलिए जटायु और सम्पाति को केवल गृध्र न कहकह गृध्रराज कहा गया है।

     उच्च मन में रहने वाली जटायु नामक पहली शक्ति का प्राकट्य उस समय होता है जब मनुष्य का अपना ही देहाभिमान ( स्वयं को शरीर समझ कर शरीर से सम्बन्ध रखने वाला प्रत्येक प्रकार का अभिमान) अपनी ही पवित्रता को हर रहा होता है, अर्थात् देहाभिमान के वशीभूत हुआ मनुष्य झूठ बोल रहा होता है अथवा चोरी कर रहा होता है अथवा किसी भी प्रकार का भ्रष्ट आचरण कर रहा होता है। तब उच्च मन में रहने वाली जटायु नामक शक्ति तुरन्त प्रकट होकर पवित्रता की रक्षा का यथासम्भव प्रयास करती है। उदाहरण के लिए,  जैसे ही देहाभिमानी मनुष्य झूठ बोल रहा होता है, अथवा रिश्वत ले रहा होता है, वैसे ही उसी के उच्च मन में विद्यमान यह जटायु नामक शक्ति तत्काल प्रकट होकर उस अहंकार को सचेत करती है, समझाती है और सत्य बोलने अथवा रिश्वत न लेने के लिए प्रेरित भी करती है। न मानने की स्थिति में यह जटायु शक्ति उस मनुष्य के अभिमान के साथ युद्ध भी करती है, जिसे मन के भीतर चलने वाले अन्तर्द्वन्द्व के रूप में देखा जा सकता है। यह जटायु शक्ति पवित्रता की रक्षा का यथासम्भव प्रयास करती है परन्तु देहाभिमान के प्रबल होने की स्थिति में अन्ततः अपने प्राणों का भी त्याग कर देती है। चूंकि मनुष्य के उच्च मन में सदा से विद्यमान, पवित्रता की रक्षा को चाहने वाली और रक्षा करने वाली यह शक्ति बहुत पुरानी है, इसलिए इसे जटायु नाम देना सार्थक ही है। जटायु शब्द जटा (जरा) और आयु नामक दो शब्दों के मेल से बना है। जटा शब्द यहाँ जरा शब्द का ही प्रच्छन्न (छिपा हुआ) स्वरूप है, जिसका अर्थ है पुराना। अतः जटायु का अर्थ हुआ पुरानी आयु वाला अर्थात् बहुत पुराना।

     उच्च मन में रहने वाली सम्पाति नाम दूसरी शक्ति उस समय प्रकट होती है जब मनुष्य का अपना ही देहाभिमान अपनी ही पवित्रता को हर चुका होता है। उदाहरण के लिए, अभिमान के वशीभूत हुआ मनुष्य झूठ बोल चुका होता है अथवा रिश्वत ले चुका होता है अथवा किसी भी प्रकार का भ्रष्ट आचरण कर चुका होता है। अतः अब जीवन से पवित्रता खो चुकी होती है, दूर जा चुकी होती है. यह स्थिति चूंकि आत्मविस्मृति के फलस्वरूप ही उत्पन्न होती है, इसलिए इसे कथा में मारीच प्रसंग के अन्तर्गत राम लक्ष्मण के दूर चले जाने पर सीता हरण के रूप में संकेतित किया गया है। यहीं पर कथा में एक महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि राम जब लौटते हैं और सीता को नहीं पाते, तब बहुत दुःखी होते हैं। यह कथन इस सत्यता को संकेतित करता है कि आत्म-विस्मृति से अपने देहाभिमान के कारण यद्यपि मनुष्य की पवित्रता का हरण हो चुका होता है, परन्तु आत्म-स्मृति के लौटने पर अब वह अपनी ही पवित्रता को न पाकर बहुत दुःखी होता है। कथा संकेत करती है कि ज्ञान का आश्रय लेकर तदनुसार कर्म करने पर भी जब पवित्रता नहीं मिल पाती अर्थात् जीवन व्यवहार में पवित्रता का अवतरण नहीं हो पाता और मन की समस्त शक्तियाँ निराश होकर  पवित्रता की खोज से भी निवृत्त सी होने लगती हैं, तब उस प्रबल निराशा की स्थिति में ही मनुष्य का साक्षात्कार एक ऐसी अन्तर्निहित शक्ति से होता है जो न केवल निराश मन को आश्वस्त करती है, अपितु पवित्रता की प्राप्ति हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश भी देती है। निराश मन को आश्वस्त करके पवित्रता की प्राप्ति हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश देने वाली उच्च मन की इस शक्ति को ही सम्पाति कहा गया है।

     यही शक्ति बतलाती है कि जीवन से पवित्रता को चुराने वाला मनुष्य का अपना ही संस्कार रूप में परिवर्तित हो चुका प्रबल देहाभिमान है। पवित्रता कहीं बाहर नहीं गई है। वह अपने ही देहाभिमानी व्यक्त्तित्व के भीतर अपने ही राक्षसी विचारों के बीच कैद हो गई है। अतः राक्षसी विचारों से भरे हुए अपने ही मनःसंस्कार रूपी महासागर का लंघन करके उस पवित्रता (सीता) का दर्शन निश्चित रूप से किया जा सकता है। पवित्रता के दर्शन हेतु अनिवार्य दिशा निर्देश देकर वह सम्पाति शक्ति उन मनःशक्तियों (वानरों) की रक्षा तो करती है है जो पवित्रता (सीता) के अन्वेषण से थककर मरने के लिए उत्सुक थी,  अपितु देहाभिमान के कारण खो चुकी पवित्रता को भी वापस लाने में सहायक होती है। इस रक्षा कार्य के कारण इसे सम्पाति नाम देना उचित ही है। सम्पाति (सम् + पाति) का अर्थ ही है  - सम्यक् रूप से रक्षा करने वाली।

कथा में आए हुए कतिपय अन्य प्रतीकों का स्पष्टीकरण

1 विन्ध्य पर्वत अहंकार का प्रतीक है। विन्ध्य का अर्थ ही है बींधने योग्य

2 सम्पाति के पंखों का जल जाना और पुनः उग आना सम्पाति शक्ति की अक्रियशीलता और क्रियाशीलता को इंगित करता है।

3 कथा में जटायु को अरुण का पुत्र और सम्पाति को गरुड का पुत्र कहा गया है।

     अरुण शब्द उषाकाल का वाचक होने के कारण आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञान के उदय की अवस्था को इंगित करता है। जटायु को अरुण का पुत्र कहकर यह संकेत किया गया है कि किञ्चित ज्ञान का उदय होने पर ही मन के भीतर जटायु शक्ति की उत्पत्ति होती है। अज्ञान की स्थिति में सामान्य मन के भीतर वह जटायु शक्ति नहीं रहती क्योंकि अज्ञान में रहते हुए मनुष्य के भीतर पवित्र अथवा शुद्ध रहने और पवित्रता को बचाने का कोई विचार या भाव ही पैदा नहीं होता।

     गरुड शब्द पौराणिक साहित्य में उच्च विचार को इंगित करता है। उच्च विचार में रहने पर ही सम्पाति शक्ति की उत्पत्ति होती है, जो देहाभिमान के कारण खोई हुई पवित्रता को पुनः प्राप्त करने में मनुष्य का सहयोग करती है।

     कथा में सम्पाति विषयक जिन विभिन्न वृत्तान्तों का समावेश किया गया है उनमें कहा गया है कि एक बार सम्पाति ने स्वर्गलोक में जाकर इन्द्र को जीता। अपने पराक्रम को परखने के लिए वे सूर्य के पास गए, उनका दर्शन किया परन्तु  गर्व से मोहित हो जाने के कारण पंखों के जल जाने से विन्ध्य पर्वत पर गिर गए। विन्ध्य पर्वत पर रहते हुए पंखों के न होने से सम्पाति सामर्थ्य विहीन हो गए थे, परन्तु निशाकर मुनि ने आश्वासन दिया था कि जिस समय राम के दूत वानर सीता की खोज करते हुए यहाँ आएँगे, उस समय सीता की खोज में सहायक होने के कारण पंखों के उग आने से आप पूर्ववत् उडने में समर्थ हो जाएंगे।

     प्रस्तुत वृत्तान्तों का समावेश करके यह संकेत किया गया है कि उच्च मन में विद्यमान सम्पाति शक्ति अद्भुत सामर्थ्य से युक्त है। देहाभिमान में रहने पर मनुष्य की यह सामर्थ्य खो जाती है, परन्तु आत्म-स्मृति में लौटने पर यह सामर्थ्य भी लौट आती है और खोई हुई पवित्रता को पाने में सहायक हो जाती है।

प्रथम लेखन 28-3-2014 (चैत्र कृष्ण द्वादशी, विक्रम संवत् 2070)

 

 

ESOTERIC ASPECT OF JATAAYU AND SAMPAATI

 -Radha Gupta

 

In Ramayana, there are two characters in the form of vultures named Jatayu and Sampati. Jatayu enters in the story when Ravana, in the absence of Rama and Lakshmana carries away Sita and Sita cries for help. Jatayu, sleeping on a tree, immediately wakes up, requests Ravana to leave Sita but when he does not leave her, Jatayu fights bravely, tries his best to liberate her and dies in protecting her.

            Sampati enters in the story when Ravana takes Sita in Lanka. Vanars of Sugriva try their best to search her but fail and get disappointed. They talk about those events that had happened in search of Sita. Sampati, sitting on a nearby mountain named Vindhya,

 

 

slowly approaches to them as he hears the death of his brother Jatayu. Hearing the whole story of Sita’s search, Sampati tells them that Sita is living in Lanka in the prison of demons. She can be seen by crossing over the ocean. Sampati had no wings, but as soon as he helps them, he gets wings and flies away. The story is symbolic and describes two powers of higher mind. Both these powers desire to protect purity symbolized as Sita, therefore both are called as Griddha in Sanskrit.

            Describing the power of Jatayu, story indicates that when a person looks his purity under the pressure of his own ego, a power of his higher mind named Jatayu immediately comes to him, tries to protect purity either by making that person understand or by fighting with his ego. For example, when a person tells a lie, this power comes (descends), tries to empower that person to till the truth but fights also when that person does not obey – dies in protecting the truth.

            Describing the power of Sampati, story says that if a person has lost his purity under the pressure of his own ego but now he eagerly wishes to attain it, tries his best in searching it, i.e., implies knowledge in his behaviour but gets failure and disappointed, then a power of higher mind named Sampati approaches him, consoles and guides him to have that last purity again. This power named Sampati tells that a person’s own mind is the ocean of impurities, beliefs etc, therefore crossing this ocean one can see his own purity again.

            The story tells that this power lies in dormant state but comes and helps when a person is in need. Then it flies away.

            The story also reveals this truth that the absence of soul consciousness takes purity away but in soul-consciousness a person wishes strongly to get it again.

 

जटा व जटायु का वैदिक स्वरूप

-         विपिन कुमार

जटा के संदर्भ में वास्तविकता का अनुमान रामेश्वरम् सेतु तीर्थ के बारे में उपलब्ध निम्नलिखित वैबसाईट में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर लगाया जा सकता है

 

http://www.agasthiar.org/a/jataa-theertham.htm

 

इस वैबसाईट पर उपलब्ध सूचना के अनुसार सेतुतीर्थ में जटातीर्थ सरोवर के किनारे तीन मन्दिर हैं ज्ञान गणपति, केतु द्वारा पूजित ज्ञानेश्वर व राहु द्वारा पूजित अज्ञानेश्वर। रामेश्वर को ज्ञानेश्वर कहा गया है। केतु ज्ञान की उस स्थिति को कहा जाता है जो भूमि पर स्थित होकर प्राप्त होती है, जमीनी स्तर की सच्चाई। इस ज्ञान का क्रमिक रूप से विकास करना होता है, उसे अज्ञान से मुक्त करना होता है। दूसरी ओर राहु को रह रहस्य, अज्ञान प्रिय है। प्रतीत होता है कि जटा शब्द में तीनों घटकों का योग है। आधुनिक गणित में ज्ञान को रीयल व इमेजिनरी/काल्पनिक कहा जाता है और उसके योग को x+iy  व x - iyके रूप में प्रदर्शित किया जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि जटातीर्थ मे विद्यमान ज्ञान गणपति तो शुद्ध ज्ञान x  का प्रतीक है, केतु की स्थिति में x+iy में से y घटक को शून्य करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि हमारा जितना अचेतन मन है, वह सब iy  काल्पनिक घटक द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। अतः केतु की स्थिति में अचेतन मन को चेतन मन में रूपान्तरित करने की आवश्यकता है । राहु की स्थिति में चेतन मन के बदले अचेतन मन का बाहुल्य है। महाभारत शान्तिपर्व 342 में उल्लेख आता है कि शुक्राचार्य द्वारा उखाडी गई जटाओं से सर्पों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने शिव के कण्ठ में दंशन किया जिससे शिव नीलकण्ठ बन गए। अन्य स्थानों पर उल्लेख आता है कि जटाओं को सिर से उखाडकर भूमि पर ताडन करने से कृत्या आदि उत्पन्न हो गए। सर्पों, कृत्याओं को भी अचेतन मन के, अज्ञान के घने विस्तार के रूप में समझा जा सकता है।

     महाभारत वनपर्व 39 में उल्लेख आता है कि तपोरत अर्जुन द्वारा सदःस्पर्शन के कारण उनकी जटाएं विद्युत् अम्भःरुह की भांति हो गई। इससे निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि तप द्वारा जटाओं के काल्पनिक घटक में ह्रास होता है।

      शिल्प में तथा लोक में जटाओं के चित्रण से जटा पर और अधिक प्रकाश पडता है। एक वैबसाईट द्वारा दी गई सूचना के अनुसार साधु लोग अपने सिर पर जटाओं का कल्पन कुछ  कुछ उसी प्रकार करते हैं जैसे आधुनिक केश विन्यास गृह। एक सुई को सिर में चुभाकर केशों को जटाओं का रूप दिया जाता है जो प्रक्रिया काफी कष्टप्रद बताई गई है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जटाएं एक प्रकार से बुद्ध आदि के सिर पर दिखाए गए उष्णीष का ही एक रूप हैं । बुद्ध व्यक्तियों के सिर पर उभरी इन आकृतियों का, जो बुद्धत्व के 32 लक्षणों में से एक हैं, क्या परिणाम होता है, यह इंटरनेट पर कहीं  उपलब्ध नहीं हो पाया है। लेकिन पुराणों में उपलब्ध कथाओं के आधार पर उसको समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। महाभारत आदिपर्व 201 में उल्लेख है कि जब तपोरत असुर-द्वय सुन्द-निसुन्द को ब्रह्मा से अवध्यता का वरदान प्राप्त हो गया तो उन्होंने जटाओं को तो काट दिया, केवल मौलि को रखा(ततस्तौ तु जटा हित्वा मौलिनौ सम्बभूवतुः |महार्हाभरणोपेतौ विरजोम्बरधारिणौ ||२८||)

। मौलि मूल स्थान, मुकुट को कहते हैं। बुद्धों के सिर पर दिखाए गए उष्णीष में बीच में शंकु आकार का उभरा स्थान दिखाया जाता है जो मौलि का रूप हो सकता है। हो सकता है कि इस मौलि स्थान में ही सर्पमणि भी स्थित हो। पुराणों के सुन्द को वैदिक साहित्य के शुन्ध्यु के रूप में समझा जा सकता है।

 

 

 

पुराणों में आधुनिक गणित की भांति यह कहीं नहीं कहा गया है कि जटाओं में चेतन व अचेतन मन विद्यमान हैं। केवल इतना कह दिया गया है कि कश्यप की कद्रू, सुपर्णी, श्येनी आदि बहुत सी पत्नियां थी। कद्रू से तो सर्प उत्पन्न हुए, सुपर्णी से गरुड या श्येन और श्येनी से गृध्र, श्येन श्येनी आदि। दूसरे स्थानों पर सुपर्णी और श्येनी को एक ही माना गया है जिसके दो पुत्र थे गरुड और अरुण। अरुण ज्येष्ठ है जो अनूरु, ऊरु से रहित है और उसे सूर्य के सारथी होने का पद मिला हुआ है। ऊरु का अर्थ है विस्तीर्ण चेतना वाला। अरुण इस विस्तीर्ण चेतना से रहित है। अरुण के दो पुत्र हुए ज्येष्ठ सम्पाति और कनिष्ठ जटायु। सम्पाति के विषय में वाल्मीकि रामायण में उल्लेख आता है कि सूर्य की रश्मियों से उसके पंख जल गए थे, अतः वह एक ही स्थान पर स्थित रहता है और उसका पालन उसका पुत्र सुपार्श्व करता है। सम्पाति को गृध्र की दूरदृष्टि प्राप्त है। वह वानरों को बता देता है कि सीता इस समय लंका में यहां पर विराजमान है। सुपार्श्व का अर्थ होगा हमें प्राप्त होने वाले शकुन। अतः सम्पाति का पालन सुपार्श्व द्वारा होने का अर्थ होगा कि स्वयं सम्पाति में अधिक शक्ति नहीं है। वह अपनी शक्ति के लिए सुपार्श्व पर निर्भर करता है। पद्म पुराण 1.6.66 में सम्पाति के पुत्र द्वय बभ्रु व शीघ्रग का उल्लेख आया है। शीघ्रग शब्द के महत्व को इस प्रकार समझा जा सकता है कि महाभारत वनपर्व 157 में जटासुर का प्रसंग है जो पांच में से तीन पाण्डव भ्राताओं तथा द्रौपदी का अपहरण कर लेता है। लेकिन युधिष्ठिर द्वारा अपने भार में वृद्धि कर लेने से जटासुर की गति रुद्ध हो जाती है। उसके पश्चात् भीम जटासुर का वध कर देता है। शीघ्रग आदि शब्द शकुनों के प्रकारों पर प्रकाश डाल सकते हैं।

       

वैदिक साहित्य में जटा शब्द प्रकट नहीं होता, केवल पौराणिक साहित्य में ही प्रकट हुआ है। वैदिक वाङ्मय में जटा शब्द का रूप यता प्रतीत होता है। रामायण के जटायु शब्द की निरुक्ति यतायु जो अपने को यत करने चला है, यति के रूप में की जा सकती है। जटायु बहुत वृद्ध है, शक्तिहीन है और वृक्षाग्र पर स्थित रहकर सीता की रक्षा करता रहता है। कहा गया है कि जटायु राजा दशरथ का वयस्यः, समकालीन, मित्र है। पद्म पुराण 1.6.66 में जटायु के पुत्र-द्वय का नाम कर्णिकार व शतगामी आया है। वेद में दश संख्या ऋग्वेद की सूचक है, शत यजुर्वेद की और सहस्र सामवेद की। ऋग्वेद की स्थिति में भूतकाल की प्रधानता रहती है, हमारे पाप पुण्य हमारे भविष्य का निर्धारण करते रहते हैं। यजुर्वेद इस स्थिति से मुक्त हो जाता है। यजुर्वेद वर्तमान में स्थित रहता है। अतः दश से मित्रता रखने वाले जटायु के पुत्र का नाम शतगामी होना वर्तमान में स्थित होने का सूचक है। जटायु की मृत्यु पर राम उसका अग्नि संस्कार करना उचित समझते हैं। अग्नि संस्कार का अर्थ होगा कि उसकी चेतना का जो अज्ञान भाग, अचेतन भाग था, उसे समाप्त करना, चेतन भाग में रूपान्तरित करना।

जब सम्पाती व जटायु भ्राताद्वय प्रतिस्पर्द्धा में सूर्य की ओर उडते हैं तो इस घटना में जटायु के पंख नहीं जलते, सम्पाति के जल जाते हैं। पंखों को बुद्ध की मूर्ति के शिल्प में केशों के तुल्य माना जा सकता है। और जब सम्पाति वानरों को सीता का पता बताकर रामकार्य में सहायक हो जाता है तो उसके पंख पुनः उग आते हैं। पंखों को समझने के लिए गवामयन याग का आश्रय लिया जा सकता है। एक वर्ष तक चलने वाले गवामयन याग में पहले 6 मासों में गवामयन याग का एक पक्ष पूरा होता है और दूसरे छह मासों में दूसरा पक्ष। एक के द्वारा समाधि में आरोहण होता है, दूलरे के द्वारा समाधि से अवरोहण। इन दोनों पक्षों के बीच एक दिन होता है जिस दिन सूर्य को राहु से, अचेतन मन की स्थिति से मुक्त रखना होता है। यह दो पार्श्व सम्पाती के पुत्र सुपार्श्व का रूप  हो सकते हैं।  

एक बार गंगा शिव की जटाओं में आ गई तो फिर बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं मिलता। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि प्रकृति की यता स्थिति तब होगी जब कोई भी संवेग भूख, प्यास, क्रोध आदि बाहर प्रकट न हों। 

  एक ओर पृथिवी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप द्वारा द्युलोक को यत करती है तो दूसरी ओर द्युलोक पृथिवी को। ऋग्वेद 10.13.2 में हविर्धान शकट-द्वय का उल्लेख है जो यम के समान यतमान हैं। यह हविर्धान-द्वय द्यावापृथिवी के प्रतीक हो सकते हैं। यह सम्पात है जो रामायण का सम्पाती हो सकता है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में यतस्रुचः शब्द 6 बार प्रकट हुआ है। यज्ञ करने वाले यतस्रुच होकर अग्नि का आह्वान करते हैं। यज्ञ में स्रुक् स्रुवा यह दो पात्र होते हैं । स्रुवा बाहु का प्रतीक होता है। स्रुवा में स्रुक पात्र से घृत का ग्रहण करके तब अग्नि में आहुति दी जाती है। यतस्रुचा का अर्थ हो सकता है कि घृत की आहुति देने वाला हाथ पीछे से किसी शक्ति से नियन्त्रित है।

     यज्ञ में अध्वर्यु नामक ऋत्विज बायें हाथ में उपभृत नामक स्रुक् को ग्रहण करता है और दायें हाथ में जुहू नामक स्रुक् को। उपभृत् स्रुक का घृत जुहू स्रुक् में ग्रहण किया जाता है और तब जुहू स्रुक से ही अग्नि में घृत की आहुति दी जाती है। उपभृत को भ्रातृव्यदेवत्य कहा गया है। उससे आहुति नहीं दी जाती। पुराणों में जटातीर्थ के संदर्भ में वाम और दक्षिण महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रथम लेखन 15-5-2014ई. ( ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, विक्रम संवत् 2071)

 

संदर्भ

,०९५.०७  उद्यंयमीति सवितेव बाहू उभे सिचौ यतते भीम ऋञ्जन् ।

,०९५.०७ उच्छुक्रमत्कमजते सिमस्मान्नवा मातृभ्यो वसना जहाति ॥

,०९८.०१  वैश्वानरस्य सुमतौ स्याम राजा हि कं भुवनानामभिश्रीः ।

,०९८.०१ इतो जातो विश्वमिदं वि चष्टे वैश्वानरो यतते सूर्येण ॥

,१०८.०४  समिद्धेष्वग्निष्वानजाना यतस्रुचा बर्हिरु तिस्तिराणा ।

,१०८.०४ तीव्रैः सोमैः परिषिक्तेभिरर्वागेन्द्राग्नी सौमनसाय यातम् ॥

 

,१२३.१२  अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा यतमाना रश्मिभिः सूर्यस्य ।

,१२३.१२ परा च यन्ति पुनरा च यन्ति भद्रा नाम वहमाना उषासः ॥

,१४२.०१  समिद्धो अग्न आ वह देवाँ अद्य यतस्रुचे ।

,१४२.०१ तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं सुतसोमाय दाशुषे ॥

,१४२.०५  स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे ।

,१४२.०५ वृञ्जे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथः ॥

,१६३.१०  ईर्मान्तासः सिलिकमध्यमासः सं शूरणासो दिव्यासो अत्याः ।

,१६३.१० हंसा इव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुर्दिव्यमज्ममश्वाः ॥

,१६९.०६  प्रति प्र याहीन्द्र मीळ्हुषो नॄन्महः पार्थिवे सदने यतस्व ।

,१६९.०६ अध यदेषां पृथुबुध्नास एतास्तीर्थे नार्यः पौंस्यानि तस्थुः ॥

,१८६.११  इयं सा वो अस्मे दीधितिर्यजत्रा अपिप्राणी च सदनी च भूयाः ।

,१८६.११ नि या देवेषु यतते वसूयुर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥

,०२४.०५  सना ता का चिद्भुवना भवीत्वा माद्भिः शरद्भिर्दुरो वरन्त वः ।

,०२४.०५ अयतन्ता चरतो अन्यदन्यदिद्या चकार वयुना ब्रह्मणस्पतिः ॥

,००२.०५  अग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जना वाजश्रवसमिह वृक्तबर्हिषः ।

,००२.०५ यतस्रुचः सुरुचं विश्वदेव्यं रुद्रं यज्ञानां साधदिष्टिमपसाम् ॥

,००८.०७  ये वृक्णासो अधि क्षमि निमितासो यतस्रुचः ।

,००८.०७ ते नो व्यन्तु वार्यं देवत्रा क्षेत्रसाधसः ॥

,०१६.०४  चक्रिर्यो विश्वा भुवनाभि सासहिश्चक्रिर्देवेष्वा दुवः ।

,०१६.०४ आ देवेषु यतत आ सुवीर्य आ शंस उत नृणाम् ॥

,००२.०९  यस्तुभ्यमग्ने अमृताय दाशद्दुवस्त्वे कृणवते यतस्रुक् ।

,००२.०९ न स राया शशमानो वि योषन्नैनमंहः परि वरदघायोः ॥

,००३.०९  ऋतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत्पक्वमग्ने ।

,००३.०९ कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ॥

,००५.१०  अध द्युतानः पित्रोः सचासामनुत गुह्यं चारु पृश्नेः ।

,००५.१० मातुष्पदे परमे अन्ति षद्गोर्वृष्णः शोचिषः प्रयतस्य जिह्वा ॥

,०१२.०१  यस्त्वामग्न इनधते यतस्रुक्त्रिस्ते अन्नं कृणवत्सस्मिन्नहन् ।

,०१२.०१ स सु द्युम्नैरभ्यस्तु प्रसक्षत्तव क्रत्वा जातवेदश्चिकित्वान् ॥

,०१९.०३  अतृप्णुवन्तं वियतमबुध्यमबुध्यमानं सुषुपाणमिन्द्र ।

,०१९.०३ सप्त प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण वि रिणा अपर्वन् ॥

,००४.०४  जुषस्वाग्न इळया सजोषा यतमानो रश्मिभिः सूर्यस्य ।

,००४.०४ जुषस्व नः समिधं जातवेद आ च देवान्हविरद्याय वक्षि ॥

,०३४.०४  यस्यावधीत्पितरं यस्य मातरं यस्य शक्रो भ्रातरं नात ईषते ।

,०३४.०४ वेतीद्वस्य प्रयता यतङ्करो न किल्बिषादीषते वस्व आकरः ॥

,०३७.०१  सं भानुना यतते सूर्यस्याजुह्वानो घृतपृष्ठः स्वञ्चाः ।

,०३७.०१ तस्मा अमृध्रा उषसो व्युच्छान्य इन्द्राय सुनवामेत्याह ॥

,०४८.०५  स जिह्वया चतुरनीक ऋञ्जते चारु वसानो वरुणो यतन्नरिम् ।

,०४८.०५ न तस्य विद्म पुरुषत्वता वयं यतो भगः सविता दाति वार्यम् ॥

,०५९.०८  मिमातु द्यौरदितिर्वीतये नः सं दानुचित्रा उषसो यतन्ताम् ।

,०५९.०८ आचुच्यवुर्दिव्यं कोशमेत ऋषे रुद्रस्य मरुतो गृणानाः ॥

,०६२.०४  आ वामश्वासः सुयुजो वहन्तु यतरश्मय उप यन्त्वर्वाक् ।

,०६२.०४ घृतस्य निर्णिगनु वर्तते वामुप सिन्धवः प्रदिवि क्षरन्ति ॥

,०६५.०६  युवं मित्रेमं जनं यतथः सं च नयथः ।

,०६५.०६ मा मघोनः परि ख्यतं मो अस्माकमृषीणां गोपीथे न उरुष्यतम् ॥

,०७४.०२  कुह त्या कुह नु श्रुता दिवि देवा नासत्या ।

,०७४.०२ कस्मिन्ना यतथो जने को वां नदीनां सचा ॥

,०२२.१०  आ संयतमिन्द्र णः स्वस्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृध्राम् ।

,०२२.१० यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्सुतुका नाहुषाणि ॥

,०५३.०२  अभि नो नर्यं वसु वीरं प्रयतदक्षिणम् ।

,०५३.०२ वामं गृहपतिं नय ॥

,०६७.०३  आ यातं मित्रावरुणा सुशस्त्युप प्रिया नमसा हूयमाना ।

,०६७.०३ सं यावप्नस्थो अपसेव जनाञ्छ्रुधीयतश्चिद्यतथो महित्वा ॥

,०१३.०१  प्राग्नये विश्वशुचे धियन्धेऽसुरघ्ने मन्म धीतिं भरध्वम् ।

,०१३.०१ भरे हविर्न बर्हिषि प्रीणानो वैश्वानराय यतये मतीनाम् ॥

,०३३.०२  दूरादिन्द्रमनयन्ना सुतेन तिरो वैशन्तमति पान्तमुग्रम् ।

,०३३.०२ पाशद्युम्नस्य वायतस्य सोमात्सुतादिन्द्रोऽवृणीता वसिष्ठान् ॥

,०३६.०२  इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः ।

,०३६.०२ इनो वामन्यः पदवीरदब्धो जनं च मित्रो यतति ब्रुवाणः ॥

,०७६.०५  समान ऊर्वे अधि संगतासः सं जानते न यतन्ते मिथस्ते ।

,०७६.०५ ते देवानां न मिनन्ति व्रतान्यमर्धन्तो वसुभिर्यादमानाः ॥

,०७९.०२  व्यञ्जते दिवो अन्तेष्वक्तून्विशो न युक्ता उषसो यतन्ते ।

,०७९.०२ सं ते गावस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सवितेव बाहू ॥

,०९८.०६  तवेदं विश्वमभितः पशव्यं यत्पश्यसि चक्षसा सूर्यस्य ।

,०९८.०६ गवामसि गोपतिरेक इन्द्र भक्षीमहि ते प्रयतस्य वस्वः ॥

,००६.१८  य इन्द्र यतयस्त्वा भृगवो ये च तुष्टुवुः ।

,००६.१८ ममेदुग्र श्रुधी हवम् ॥

,०२३.२०  तं हुवेम यतस्रुचः सुभासं शुक्रशोचिषम् ।

,०२३.२० विशामग्निमजरं प्रत्नमीड्यम् ॥

,०४३.०४  हरयो धूमकेतवो वातजूता उप द्यवि ।

,०४३.०४ यतन्ते वृथगग्नयः ॥

,०४६.१२  य ऋष्वः श्रावयत्सखा विश्वेत्स वेद जनिमा पुरुष्टुतः ।

,०४६.१२ तं विश्वे मानुषा युगेन्द्रं हवन्ते तविषं यतस्रुचः ॥

,०७४.०६  सबाधो यं जना इमेऽग्निं हव्येभिरीळते ।

,०७४.०६ जुह्वानासो यतस्रुचः ॥

,०९२.०७  त्यमु वः सत्रासाहं विश्वासु गीर्ष्वायतम् ।

,०९२.०७ आ च्यावयस्यूतये ॥

,०६२.०३  कृण्वन्तो वरिवो गवेऽभ्यर्षन्ति सुष्टुतिम् ।

,०६२.०३ इळामस्मभ्यं संयतम् ॥

,०६५.०३  आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुवः ।

,०६५.०३ इषे पवस्व संयतम् ॥

,०७२.०६  अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कविं कवयोऽपसो मनीषिणः ।

,०७२.०६ समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः ॥

१०,०१३.०२  यमे इव यतमाने यदैतं प्र वां भरन्मानुषा देवयन्तः ।

१०,०१३.०२ आ सीदतं स्वमु लोकं विदाने स्वासस्थे भवतमिन्दवे नः ॥

१०,०१८.०६  आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्वं यतमाना यति ष्ठ ।

१०,०१८.०६ इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायुः करति जीवसे वः ॥

१०,०२९.०८  व्यानळ् इन्द्रः पृतनाः स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः ।

१०,०२९.०८ आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥

१०,०६२.११  सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।

१०,०६२.११ सावर्णेर्देवाः प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम् ॥

१०,०७२.०७  यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत ।

१०,०७२.०७ अत्रा समुद्र आ गूळ्हमा सूर्यमजभर्तन ॥

१०,०७५.०३  दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्ममुदियर्ति भानुना ।

१०,०७५.०३ अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत् ॥

१०,०८७.०८  इह प्र ब्रूहि यतमः सो अग्ने यो यातुधानो य इदं कृणोति ।

१०,०८७.०८ तमा रभस्व समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयैनम् ॥

१०,०८७.१७  संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः ।

१०,०८७.१७ पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन् ॥

१०,०९१.०७  वातोपधूत इषितो वशां अनु तृषु यदन्ना वेविषद्वितिष्ठसे ।

१०,०९१.०७ आ ते यतन्ते रथ्यो यथा पृथक्छर्धांस्यग्ने अजराणि धक्षतः ॥

१०,१०७.०३  दैवी पूर्तिर्दक्षिणा देवयज्या न कवारिभ्यो नहि ते पृणन्ति ।

१०,१०७.०३ अथा नरः प्रयतदक्षिणासोऽवद्यभिया बहवः पृणन्ति ॥

१०,१३०.०१  यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः ।

१०,१३०.०१ इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥

१०,१३२.०४  असावन्यो असुर सूयत द्यौस्त्वं विश्वेषां वरुणासि राजा ।

१०,१३२.०४ मूर्धा रथस्य चाकन्नैतावतैनसान्तकध्रुक् ॥

(,६.४ ) क्षत्रेणाग्ने स्वेन सं रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व ।

(,६.४ ) सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ॥४॥

(,२९.२ ) यो नो दिदेव यतमो जघास यथा सो अस्य परिधिष्पताति ॥२॥

(,२९.४ ) पिशाचो अस्य यतमो जघासाग्ने यविष्ठ प्रति शृणीहि ॥४॥

(,२९.५ ) यदस्य हृतं विहृतं यत्पराभृतमात्मनो जग्धं यतमत्पिशाचैः ।

(,२९.५ ) तदग्ने विद्वान् पुनरा भर त्वं शरीरे मांसमसुमेरयामः ॥५॥

(,२९.७ ) क्षीरे मा मन्थे यतमो ददम्भाकृष्टपच्ये अशने धान्ये यः ।

(,२९.७ ) तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु ॥७॥

(,२९.८ ) अपां मा पाने यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम् ।

(,२९.८ ) तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु ॥८॥

(,२९.९ ) दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम् ।

(,२९.९ ) तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु ॥९॥

(,५५.१ ) ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति ।

(,५५.१ ) तेषामज्यानिं यतमो वहाति तस्मै मा देवाः परि दत्तेह सर्वे ॥१॥

(,३.८ ) इह प्र ब्रूहि यतमः सो अग्ने यातुधानो य इदं कृणोति ।

(,३.८ ) तमा रभस्व समिधा यविष्ठ नृचक्षसश्चक्षुषे रन्धयैनम् ॥८॥

(,३.१७ ) संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः ।

(,३.१७ ) पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मणि ॥१७॥

(,९.१७ ) षडाहुः शीतान् षडु मास उष्णान् ऋतुं नो ब्रूत यतमोऽतिरिक्तः ।

(,९.१७ ) सप्त सुपर्णाः कवयो नि षेदुः सप्त छन्दांस्यनु सप्त दीक्षाः ॥१७॥

(,१.२ ) यत ऐति मधुकशा रराणा तत्प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ॥२॥

(१०,२.८ ) मस्तिष्कमस्य यतमो ललाटं ककाटिकां प्रथमो यः कपालम् ।

(११,१.१० ) त्रयो वरा यतमांस्त्वं वृणीषे तास्ते समृद्धीरिह राधयामि ॥१०॥

(११,१.२६ ) सोम राजन्त्संज्ञानमा वपैभ्यः सुब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान् ।

(११,१.३२ ) बभ्रे रक्षः समदमा वपैभ्योऽब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान् ।

(११,२.१२ ) रुद्रस्येषुश्चरति देवहेतिस्तस्यै नमो यतमस्यां दिशीतः ॥१२॥

(११,२.१४ ) भवारुद्रौ सयुजा संविदानावुभावुग्रौ चरतो वीर्याय ।

(११,२.१४ ) ताभ्यां नमो यतमस्यां दिशीतः ॥१४॥

(११,२.२७ ) भवो दिवो भव ईशे पृथिव्या भव आ पप्र उर्वन्तरिक्षम् ।

(११,२.२७ ) तस्यै नमो यतमस्यां दिशीतः ॥२७॥

(१२,२.२४ ) आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्वं यतमाना यति स्थ ।

(१२,२.२४ ) तान् वस्त्वष्टा सुजनिमा सजोषाः सर्वमायुर्नयतु जीवनाय ॥२४॥

(१२,३.१ ) पुमान् पुंसोऽधि तिष्ठ चर्मेहि तत्र ह्वयस्व यतमा प्रिया ते ।

(१२,३.४९ ) प्रियं प्रियाणां कृणवाम तमस्ते यन्तु यतमे द्विषन्ति ।

(१७,१.३० ) व्युछन्तीरुषसः पर्वता ध्रुवाः सहस्रं प्राणा मय्या यतन्ताम् ॥३०॥

(१८,३.३८ ) इतश्च मामुतश्चावतां यमे इव यतमाने यदैतम् ।

(१८,३.३८ ) प्र वां भरन् मानुषा देवयन्तो आ सीदतां स्वमु लोकं विदाने

(२०,२५.३ ) अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः ।

(२०,२५.३ ) असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते

(२०,३६.१० ) आ संयतमिन्द्र णः स्वस्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृध्राम् ।

(२०,३६.१० ) यया दासान्यार्याणि वृत्रा करो वज्रिन्त्सुतुका नाहुषाणि ॥१०॥

(२०,७६.८ ) व्यानळ् इन्द्रः पृतनाः स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः ।

(२०,७६.८ ) आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥८॥

(२०,८७.६ ) गवामसि गोपतिरेक इन्द्र भक्षीमहि ते प्रयतस्य वस्वः ॥६॥

 

जटासुत्त (1.1.23)

(राहुल सांकृत्यायन द्वारा पालि साहित्य का इतिहास में अनुवादित)

इस सुत्त में वे ही प्रसिद्ध गाथाएँ हैं जिन्हें सिंहल के स्थविरों ने आचार्य बुद्धघोष की परीक्षा लेने के लिए उन्हें दिया था। उनके व्याख्यान में आचार्य ने  'विसुद्धिमग्ग' जैसे गम्भीर ग्रंथ को प्रस्तुत करके अपनी योग्यता प्रमाणित की थी

"भीतर में जटा ( लगी है ) , बाहर भी जटा ही जटा है,

सभी जीव जटा में बेतरह उलझे पडे है,

 इसलिए, हे गौतम, आपसे पूछता हूँ,

कौन इस जटा को सुलझा सकता है ?"

 "शील पर प्रतिष्ठित हो प्रज्ञावान् मनुष्य,

चित्त और प्रज्ञा की भावना करते हुए,

तपस्वी और विवेकशील भिक्षु ही,

इस जटा को सुलझा सकता है।

जिनके राग द्वेष और अविद्या,

बिल्कुल हट चुकी हैं,

जो क्षीणास्रव अर्हत् हैं,

उनकी जटा सुलझ चुकी है।

जहाँ नाम और रूप,

बिल्कुल निरुद्ध हो जाते हैं,

प्रतिघ और रूप-संज्ञा भी,

वहाँ यह जटा कट जाती है।

जाल फैलाने वाली तृष्णा ही जटा कही गई है। वह रूपादि आलम्बनों में ऊपर नीचे बारबार उत्पन्न होने और गुथ जाने के कारण बाँस इत्यादि के झाड की भाँति मानों जटा जैसी हो। इसी से तृष्णा ही यहाँ जटा कही गई है।

 

 

http://www.agasthiar.org/a/jataa-theertham.htm

 

The sacred space of Lord Gnaneswara and Lord Agnaneswara on the banks of the Jataa Theertham sacred pond in Rameswaram with shrines for three deities:

 (1) Lord Sri Gnana Ganapathi,

 (2) Lord Sri Gnaneswara (worshipped by Ketu) and

 (3) Lord Sri Agnaneswara (worshipped by Rahu).

 

This is Rameswara GNANESWARAM!

 Located 7 km. from Rameswaram, this temple on the banks of the Jada Theertham has been praised by the Siddhas as RAMESWARA GNANESWARAM.   It is a sacred fount of Gnana (spiritual wisdom).

 Lord Agnaneswara protects us from succumbing to Agnana (ignorance).   Lord Gnaneswara blesses us with crystal clear Gnana (spiritual wisdom).

 

 For countless aeons, Siddhas and Maharishis have bathed in the Jataa Theertham sacred pond and worshipped here so that they may stay free from the grip of agnana ignorance and be blessed with bhakti devotion and gnana wisdom.  

Rahu and Ketu Blessed

 Amongst the nine Navagrahas (Nine Lords),

 Rahu's power to remove our Agnana (ignorance) and

 Ketu's power to bless us with Gnana (spiritual wisdom)

 were granted here in this sacred space by the Lord Himself.

Jadaa Theertham and the Gnaneswara Shiva Temple

 Gnaneswara, Agnaneswara.

 Jadaa Theertham and the Gnaneswara Shiva Temple.