Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.) Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.) Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. ) Chaakshusha - Chaamundaa (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.) Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.) Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. ) Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.) Chuudaalaa - Chori ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.) Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.) Chhaaga - Jataa (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.) Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.) Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.) Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.) Jayadhwaja - Jara ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. ) Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.) |
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पंक्ति : पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पंक्ति छन्द में ५ पंक्तियां होती हैं और यह ऊर्ध्व दिशा में आध्यात्मिक प्रगति का सूचक है । इसे इस प्रकार लिया जाता है कि लोम, त्वक्, मांस, अस्थि और मज्जा में एक साथ प्रगति हो । तैत्तिरीय संहिता ५.६.१०.२ में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, यज्ञ व यजमान नामक ५ चितियों का कथन है जिसमें प्रत्येक चिति के लिए एक पुरीष/बालुका है । पहली चिति के लिए ओषधि - वनस्पतियां, दूसरी के लिए वयांसि या पक्षी, तीसरी के लिए नक्षत्र, चतुर्थी के लिए दक्षिणा व पांचवी के लिए प्रजा पुरीष हैं । इस स्थिति को वास्तविक रूप में प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । चिति को एण्ट्रांपी का उल्टा कहा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ६ से ९ तक अग्निचयन या चिति से ही सम्बन्धित हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.१.५.४ में कामना की गई है कि उखा के बिल या आकाश स्थान को अदिति पंक्ति छन्द द्वारा ग्रहण करे । यहां बिल का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । पंक्ति का आयतन श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि पंक्ति पृथु जैसी होती है । शुक्ल यजुर्वेद १३.५८ आदि में पंक्ति छन्द को ऊर्ध्व दिशा व मति से सम्बद्ध किया गया है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.२ में पंक्ति को यज्ञ की पत्नी कहा गया है । अभिप्लव नामक सोमयाग का पंचम अह पंक्ति छन्द से सम्बद्ध होता है ( शतपथ १२.२.४.६) । शतपथ १०.३.२.१० में मरुतों को पंक्ति छन्द के साथ सम्बद्ध किया गया है । छन्दों के संदर्भ में बौधायन श्रौत सूत्र १०.४५ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य मिलता है । इस संदर्भ में गायत्री , त्रिष्टुप् आदि छन्दों का ४ दिशाओं से सम्बन्ध बताया गया है जो अन्य संदर्भों के समान ही है । लेकिन इससे भी आगे जाकर इस संदर्भ में उष्णिक् का सम्बन्ध पूर्व दिशा से, पंक्ति का दक्षिण से, अक्षरपंक्ति का पश्चिम दिशा से, अतिच्छन्दा का उत्तर दिशा से व द्विपदा का मध्य दिशा से सम्बन्ध कहा गया है । एक विकल्प यह भी दिया गया है कि अतिच्छन्दा मध्य में हो और द्विपदा उत्तर में । पूर्व दिशा के गायत्री और उष्णिक् छन्द युगल के सम्बन्ध पर इस प्रपत्र में अन्य स्थल पर प्रकाश डाला गया है । अन्य छन्द युगलों का दिशाओं से तादात्म्य अन्वेषणीय है । छन्द व ऋतुएं : गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप् व पंक्ति छन्दों को क्रमशः वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् व हेमन्त ऋतुओं से सम्बद्ध किया गया है और प्रत्येक ऋतु के प्रभाव उस - उस छन्द में भी अभिलक्षित होने चाहिएं । होते हैं या नहीं, इसकी परीक्षा आगे की जाएगी । इसी प्रकार गायत्री से आरम्भ होने वाले ४ छन्दों को पूर्व आदि ४ दिशाओं से सम्बद्ध किया गया है । छन्दों का दिशाओं से सम्बन्ध : जैसा कि विज्ञान भारती प्रदीपिका को प्रकाशन के लिए प्रस्तुत किए गए दो अन्य प्रपत्रों में कारण व कार्य के सम्बन्ध में स्पष्ट किया गया है, पूर्व दिशा मूल कारण की उत्पत्ति से सम्बन्धित है, पश्चिम दिशा कर्मों के फल को अस्त करने की, उनका क्षय या प्रायश्चित्त करने की दिशा है । दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्त करने की, दक्षिणा प्राप्त करने की दिशा है । जगती पश्चिम दिशा से सम्बद्ध है । योगवासिष्ठ का कथन है कि पश्चिम काया को ऐसा बना देना चाहिए कि उस स्थिति में किसी भी कर्म के फल का अंकुरण न हो, सब कर्म रूपी बीज भुन जाएं । जगती छन्द आधुनिक विज्ञान में तापगतिकी के द्वितीय नियम के संदर्भ में नष्ट हुई ऊर्जा से सम्बन्धित हो सकता है, उसका यह दूसरा उदाहरण है । अनुष्टुप् उत्तर दिशा से । उत्तर दिशा सब प्रकार के द्वन्दों से, द्यूत से, संभावनाओं से, चांस से ऊपर उठकर निश्चितता की, प्रतिष्ठा की दिशा है । अनुष्टुप् को ध्रुवा दिशा से भी सम्बद्ध किया गया है ।
छन्दों के संदर्भ में सोमयाग का महत्त्व तथा सोमयाग की वेदी के निर्माण में पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा का महत्त्व : सोमयाग की वेदी में आकर जिस प्रकार यज्ञ के कृत्य सम्पन्न किए जाते हैं, उससे यह अनुमान होता है कि इस स्थिति में आकर छन्द अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं । सोमयाग की वेदी के २ भाग होते हैं - प्राग्वंश ( चित्र १) और महावेदी या उत्तरवेदी ( चित्र २) । सोमयाग के संदर्भ में यह जान लेना सबसे महत्त्वपूर्ण होगा कि वहां प्राग्वंश और महावेदी में सैद्धान्तिक रूप में क्या अन्तर है । ऐसा अनुमान है कि प्राग्वंश में, जहां केवल हविर्यज्ञ अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास आदि सम्पन्न होते हैं, पृथिवी के केवल अपनी धुरी पर परिक्रमा करने का महत्त्व है जिसके कारण दिन व रात होते हैं और जिसके अनुसार अग्निहोत्र सम्पन्न होता है । महावेदी में पूर्व दिशा गायत्री छन्द से सम्बन्धित हो सकती है । महावेदी में सबसे पूर्व में यूप गडा होता है जिससे यजमान रूपी पशु को बांधा जाता है । यूप के पश्चिम में उत्तरवेदी या आहवनीय अग्नि का स्थान होता है, उससे पश्चिम में हविर्धान मण्डप होता है और सबसे पश्चिम में सदोमण्डप होता है । यूप, हविर्धान मण्डप व सदोमण्डप प्राग्वंश में नहीं होते, अथवा यह कहा जा सकता है कि अविकसित अवस्था में होते हैं । यूप संवत्सर का प्रतीक है जिसे कहा गया है कि देवों ने उल्टा कर दिया है । संवत्सर से तात्पर्य यह निकलता है कि पृथिवी सूर्य के चारों ओर भ्रमण करती है ( चित्र ३) और इस कारण दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि रूप में संवत्सर का जन्म होता है । भौतिक पृथिवी भौतिक सूर्य की परिक्रमा करती है, यहां तक तो ठीक है । लेकिन जब चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो यह ठीक हो भी सकता है, नहीं भी । सामान्य स्थिति तो यही है कि चेतना की पृथिवी सूर्य की परिक्रमा नहीं करती । चेतना रूपी पृथिवी से यह अपेक्षा है कि वह सूर्य की परिक्रमा करे, चेतना के कार्य किसी चेतन सूर्य द्वारा नियन्त्रित हों । तभी महावेदी का साक्षात्कार संभव हो सकता है । भौतिक पृथिवी सूर्य की परिक्रमा में जिस पथ का निर्माण करती है, आधुनिक विज्ञान उसे परवलयाकार बताता है(चित्र ३) । कुछ आकाशीय पिण्डों का भ्रमण इस प्रकार भी होता है कि उनका पथ अतिपरवलयाकार ( हाईपरबोलिक ) बनता है ( चित्र ४) । अतिपरवलय में पिण्ड बारम्बार परिक्रमा नहीं कर सकता, एक बार ही कर सकता है । लगता है सामान्य चेतना रूपी पृथिवी के लिए यह पथ अधिक उपयुक्त है । अथवा यह हो सकता है कि सामान्य चेतना कईं भागों में विभाजित होकर सूर्य की परिक्रमा कर रही है, जिससे कि फलित ज्योतिष का जन्म हुआ है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में ऐसा हो रहा है कि कारण कार्य को नियन्त्रित करता है, कार्य कारण को नहीं । प्राग्वंश की स्थिति में यूप जैसा कोई नियन्त्रक कारण नहीं है और वहां भौतिक जगत के कार्य - कारण लागू होने चाहिएं । जब चेतना रूपी पृथिवी चेतन सूर्य की परिक्रमा करती है तो संभवतः पुराणों में उसे अदिति आदि नाम दिए गए हैं । त्रिष्टुप्, जगती आदि दिति, खण्डित शक्तियों के अन्तर्गत आते हैं, यद्यपि इन्हें भी गायत्री की भांति ही पृथिवी कहा गया है ।
सोमयाग में गायत्री छन्द : सोमयाग में प्रातःसवन को गायत्री से, माध्यन्दिन सवन को त्रिष्टुप् से और तृतीय सवन को जगती से व उसके पश्चात् सम्पादित होने वाले अग्निष्टोम सामगान को अनुष्टुप् से सम्बद्ध किया गया है । इन तीन सवनों में जो कृत्य सम्पादित होते हैं, उनसे तीन छन्दों की प्रकृति का उद्घाटन होना चाहिए । छन्दों को समझने के लिए ब्राह्मणों में कुछ एक कथन उपयोगी हो सकते हैं । काठक संहिता ३८.१४ का कथन है कि लोमों से गायत्री में प्रवेश करता हूं, त्वचा से त्रिष्टुप् में, मांस से जगती में, अनुष्टुप् से अस्थि में, मज्जा से पंक्ति में । पुराणों का कथन है कि यह जो हमारे शरीर में लोम हैं, यह पृथिवी पर उगी ओषधियों - वनस्पतियों का प्रतीक हैं । पृथिवी की उर्वरा शक्ति ओषधियों आदि के रूप में गुरुत्वाकर्षण से उलटी दिशा में प्रकट होती है और कहा गया है कि पृथिवी से इस शक्ति को निकालने का कार्य गायत्री करती है । इसी प्रकार यह हो सकता है कि हमारे शरीर से शक्ति को बाहर निकालने का कार्य भी गायत्री छन्द द्वारा सम्पन्न होता हो । लेकिन अन्तर यह है कि पृथिवी से निकली ओषधि आदि जीवन युक्त होती हैं, जबकि हमारे शरीर से निकलने वाले केश, नख आदि जीवनरहित होते हैं, मल रूप होते हैं । अतः पुराणों के कथन को बहुत सावधानी से समझने की आवश्यकता है । सोमयाग में दीक्षा कृत्य में शरीर के सभी अङ्गों के लोमों व केशों का वपन किया जाता है । केश आदि मृत होते हैं और दीक्षा के पश्चात् यह अपेक्षित है कि शरीर में किसी मृत तत्त्व का निर्माण न हो । शरीर में केश निर्माण की प्रक्रिया के रुकने के तथ्य को आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में कैंसर रोग में कैमोथिरेपी के काल में केश निर्माण की क्रिया के कुछ समय के लिए रुकने द्वारा भी समझा जा सकता है । कैमोथिरेपी में एक बार कुछ काल के लिए शरीर के सभी अङ्गों में नवनिर्माण का कार्य बिल्कुल रोक दिया जाता है और फिर प्राण नई शक्ति पाकर नवनिर्माण करते हैं जो कैंसर रोग से रहित होता है । इसी प्रक्रिया को गायत्री छन्द पर भी लागू करने की आवश्यकता है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य की देह लोमरहित होती है जबकि पशुओं की लोम सहित । इसी प्रकार वनस्पति जगत व पशुओं में मोटी त्वचा का निर्माण होता है, जबकि मनुष्यों आदि में त्वचा बहुत पतली होती है । समझा जाता है कि मनुष्य में मन का विकास इसी कारण से हुआ है कि वह लोमों व मोटी त्वचा से मुक्त हो सका । ब्राह्मणों के आख्यान के अनुसार दीक्षा जगती छन्द से जुड गई है, गायत्री से नहीं । ऐतरेय आरण्यक २.१.६ में उपरोक्त तथ्य को थोडे भिन्न प्रकार से कहा गया है । वहां प्राण को बृहती कहा गया है और लोम को उष्णिक्, त्वचा को गायत्री, मांस को त्रिष्टुप्, स्नायु को अनुष्टुप्, अस्थि को जगती और मज्जा को पंक्ति । सोमयाग में प्रातःसवन गायत्री छन्द से सम्बद्ध होता है और इस सवन में जो कृत्य किए जाते हैं, वह अन्य सवनों के लिए बीज रूप बनते हैं । वैदिक साहित्य की भाषा में इसे रेतः सिंचन कहा गया है । यह अन्वेषणीय है कि गायत्री छन्द के रहस्यों को प्रातः सवन के माध्यम से किस प्रकार उद्घाटित किया जा सकता है । प्रातःसवन में एक कृत्य प्रातरनुवाक होता है जिसमें होता ऋत्विज महावेदी में हविर्धान मण्डप के पूर्व द्वार पर बैठकर अग्नि, उषा व अश्विनौ देवताओं के लिए ७ - ७ छन्दों वाली ऋचाओं का जप करता है । शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि यह जप रात्रि में उस काल में होना चाहिए जब पशु - पक्षियों ने बोलना भी आरम्भ न किया हो । इसका अर्थ होगा कि प्रातरनुवाक सबसे पहली, शकुन से भी पहली अन्त:प्रेरणा है । नारायणोपनिषद में गायत्री छन्द का देवता सविता कहा गया है । वैदिक साहित्य में सविता प्रसविता कहा जाता है । वैदिक कर्मकाण्ड में कार्य सम्पादन से पूर्व सवितु: प्रसविताभ्यां, अश्विनोर्बाहुभ्यां, पूष्णो हस्ताभ्यां इत्यादि मन्त्र का वाचन किया जाता है । प्राग्वंश में गार्हपत्य अग्नि के चयन के पश्चात् और उत्तरवेदी में आहवनीय अग्नि के चयन से पूर्व सोमक्रयण नाम का कृत्य सम्पादित किया जाता है जिसमें ऋत्विजगण व यजमान शूद्र से सोम क्रय करते हैं । यह सोम एक ग्रन्थि में बंधा हुआ प्राग्वंश की आहवनीय अग्नि के दक्षिण में रखा रहता है । वहां इसकी अतिथि रूप में पूजा भी की जाती है । जब प्राग्वंश में प्रवर्ग्य संभरण का कार्य पूरा हो जाता है, अथवा यह कहें कि संवत्सर की ६ ऋतुओं का निर्माण हो जाता है तो इस सोम को महावेदी में स्थान्तरित करते हैं और वहां हविर्धान मण्डप में इसका रस निकाला जाता है और उसे देवों को अर्पित किया जाता है । यहां ब्राह्मणों में दिये गए इस आख्यान का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है कि जगती, त्रिष्टुप व गायत्री सोम आहरण के लिए द्युलोक में गए लेकिन उनमें से केवल गायत्री ही सोम को लाने में समर्थ हो सकी । जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह आवश्यक नहीं है कि हमारी चेतना रूपी पृथिवी चेतन सूर्य के परितः भ्रमण करे ही । ऐसे ही यह आवश्यक नहीं है कि भौतिक रूप में जो चन्द्रमा पृथिवी का परिभ्रमण करता रहता है, वह घटना स्वाभाविक रूप से चेतना के स्तर पर भी सत्य हो । उसे सत्य बनाने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होगी और लगता है कि यह कार्य गायत्री द्वारा सम्पन्न हो सकता है । प्राग्वंश में आहवनीय के दक्षिण में सोम बंधा हुआ रखा रहता है, उसका उपयोग नहीं किया जा सकता । महावेदी के हविर्धान मण्डप में उसका मुक्त रूप से उपयोग किया जाता है । यहां गायत्री निहित होनी चाहिए क्योंकि वही पृथिवी पर सोम के उपयोग को सम्भव बनाती है । सोम से क्या तात्पर्य हो सकता है ? मन के विकसित रूप को चन्द्रमा कहा गया है ( चन्द्रमा मनसो जातः इत्यादि ) । अतः आधुनिक विचारकों की भाषा में यह कहा जा सकता है कि प्राग्वंश में सोम के बंधे होने, उपयोग न हो पाने से तात्पर्य अचेतन मन से है, वह मन जो अचेतन रूप में हमारे जीवन के सभी कार्यों को सम्पादित कर रहा है । इस अचेतन मन को चेतन बनाने की आवश्यकता है । यह कार्य महावेदी में हो जाता है । गायत्री को शरीर में मुख रूप कहा जाता है । मुख का कार्य रस का आस्वादन करना होता है । भोजन से पुष्टि आदि का कार्य तो जठर आदि में होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि रस उत्पन्न करने का कार्य गायत्री द्वारा सम्पन्न होना चाहिए । पृथिवी पर बहुत से भोज्य पदार्थों में रस होता है, बहुतों में नहीं । यह कहा जा सकता है कि जिन पदार्थोंमें रस विकसित हुआ है, वह गायत्री का कार्य है और यह रस एक प्रकार से उस पदार्थ के चेतन मन का रूप है । गायत्री को शरीर में मुख रूप कहने से दूसरा तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारे शरीर में अंगों की स्थूलता तथा चेतनता के बहुत से स्तर हैं । पाद भाग सबसे स्थूल होता है । एडियों को सुप्त चक्षु रूप कहा जाता है । फिर यह चक्षु अण्डकोशों को रूप में विकसित होते हैं, फिर स्तनद्वय के रूप में और फिर मुख पर चक्षु रूप में ।अतः अंग विकसित होते - होते मुख पर आकर सबसे अधिक विकसित रूप में होते हैं । अतः जहां भी विकास की पराकाष्ठा हो, उसे गायत्री का रूप समझना चाहिए । सोमयाग में प्रातःसवन में आज्यस्तोत्र और आज्य शस्त्रों का वाचन होता है । आज्य उस घृत को कहते हैं जो स्वतःस्फूर्त मन्थन से उत्पन्न हो जाता है, परिश्रम से नहीं । आध्यात्मिक रूप में मन्थन किसी हर्ष आदि से हो सकता है । आज्य को वैदिक साहित्य में बहुत प्रकार से समझाने का प्रयास किया गया है लेकिन इसको सहज रूप में समझना सबसे सरल होगा । डा. फतहसिंह का कहना है कि अज वह स्थिति होती है जब कोई विचार आदि उत्पन्न न हो, बिल्कुल शान्त स्थिति, अ - जन्म । यह गायत्री की स्थिति है । त्रिष्टुप् में तो क्षोभ उत्पन्न हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.६ में अग्निचयन के संदर्भ में कहा गया है कि आपः के मन्थन से फेन उत्पन्न होता है, फेन से मृदा, मृदा से सिकता, सिकता से शर्करा, शर्करा से अश्मा, अश्मा से अयः और अयः से हिरण्य । कहा गया है कि यह ८ रूप गायत्री के ८ अक्षर हैं । इस पहेली के संदर्भ में यह सुझाव है कि आपः से तात्पर्य मनुष्य के आभा मण्डल से हो सकता है । अथवा यह प्राण और अपान की सन्धि हो सकती है । इस आभा मण्डल में वायु का प्रवेश कराने पर, वायु द्वारा मन्थन करने पर फेन उत्पन्न होता है, फेन से मृदा, मृदा से सिकता आदि । इनमें उत्तरोत्तर रूप में कर्षण शक्ति का विकास होता जाता है । हमारे शरीर रूपी पृथिवी में यह न्यूनता है कि उसमें कर्षण शक्ति पर्याप्त नहीं है । मस्तिष्क किसी अङ्ग के रोग को जान भी सकता है, नहीं भी । लेकिन यदि कर्षण पर्याप्त रूप से प्रबल हो जाए तो स्थिति अन्यथा होगी । यह एक व्यावहारिक विषय है । इससे आगे शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.९ में कुमार के ८ नामों रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, अशनि, भव, महादेव व चन्द्रमा को गायत्री के ८ अक्षर कहा गया है । यह संभव है कि पहले ८ अक्षर गायत्री के प्रथम पद के लिए और दूसरे गायत्री के अन्तरिक्ष स्थानीय द्वितीय पद के लिए हों । यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में सार्वत्रिक रूप से शिव के ८ नामों के अन्तर्गत भव, शर्व आदि का उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण १४.८.-- - के अनुसार गायत्री वह है जो गय प्राणों का त्राण करती हो । जैसा कि गय शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, गय प्राण वह प्राण हो सकते हैं जो मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों में बिखर जाते हैं - पशु के रूप में, वनस्पतियों के रूप में आदि । गायत्री इन प्राणों को फिर से पिण्ड रूप देने में समर्थ होती है । Gaayatri: It can be said that one which provides initial impulse to start the functioning of a system is Gaayatri chhanda. According to Newton’s law of motion, a system will not change it’s speed until some outer force is applied on it. This law seems to be too trivial, but it’s importance becomes evident as the principle of cause and effect has developed out of it. In vedic sciences also, Gaayatri may be said to be connected with cause and Jagati with effect. At another place, Gaayatri has been stated as praana and Trishtup as aatmaa. With reference to seasons, Gaayatri has been stated to be the autumn. The quality of autumn has been stated to be Samit. According to Dr. Fatah Singh, One is Sabhaa and one is Samiti. In Sabhaa, every member may have different views, but in a Samiti, every member has resonance. Ushnik : One text states Ushnik chhanda as the neck. It seems that it works as a neck for Gaayatri as a head. Savitaa has been stated to be it’s presiding deity. Trishtup : Trishtup chhanda has been universally stated to be the thunderbolt of Indra, the might. Trishtup has been assigned the task of achieving efficiency. The climax of efficiency is in becoming the weapons of gods. In puraanic texts, different weapons of goddess are formed out of the aura of gods. This aura is the extra energy which has to be given either the shape of weapons of gods or it will go waste. On the basis of qualities of seer Bhardwaaja, it can also be said that the development of clairvoyance is the climax of Trishtup. Jagati : One vedic text associates Jagati chhanda with a class of gods called Vishwedevah – a cluster of all gods. These gods can be said to be an evolved state of manes/pitris. It can be said that those praanas whose entropy has gone high are pitris. Therefore, the main function of Jagati chhanda should be to lower the entropy of a system which has reached in a stated of high entropy. Anushtup : One vedic text states that Gaayatri, Trishtup and Jagati chhandas are true, while the fourth Anushtup chhanda is of true – untrue nature. Anushtup has been universally called as speech. There are four stages of speech – the first which lies at the innermost level and the last which we all speak. Normally, our speech does not unravel truth, but if it is connected with the innermost level, then it can speak truth. One texts states Jagati as god mitra/friend and Anushtup as Varuna, the god of true and false. The other statement is that Anushtup is the chhanda which removed death from yaaga. This indicates that the function of god Varuna through Anushtup is to remove death away. There is a continuous competition between life and death from the gross level to the finest level – who is to dominate. The nature of Anushtup is different from the earlier 3 chhandas. This is indicated by the yaaga procedure. There, in case of Gaayatri, the clarified butter is transferred by the vessel Juhuu, in case of Trishtup and Jagati by the vessel Upabhrit, and in case of Anushtup, by the vessel named Dhruvaa. Pankti : It has been stated about Pankti chhanda that this is indicator of progress in upward direction. There are 5 lines in a Pankti chhanda and it is possible that these may be symbolic of hair, skin, flesh, bone and bone marrow. Pankti has been stated to be the wife of yaaga. Connection of chhandas with seasons : Gaayatri, Trishtup, Jagati, Anushtup and Pankti have been connected with 5 seasons – autumn, summer, rain, winter and chill/frost respectively. Thus each chhanda should reflect the characteristics of that particular season. To how much extent this is true, it will be examined later. Connection of chhandas with directions : As has been stated elsewhere also, east is connected with the birth of original cause, west with how to nullify the fruits of actions, south with achieving efficiency and on lower side, with chance. North is connected with definiteness, above chance. Gaayatri is connected with east, Trishtup with south, Jagati with west and Anushtup with north. Anushtup has also been stated to be connected with downward direction, Dhruvaa. Understanding chhanda through Somayaaga :In somayaaga, there are mainly two sections of the sacred sacrificial place – the initial and final. Regarding chhandas, the final place can provide much insight. It may be expected that whatever is the shape of the final place, whatever are the characteristics of the final place, these may be existing in the initial place in seed form. It is expected that for achievement of the final place, one should have realization of a year. In mythology, an year is formed by the association of the trio of sun, earth and moon. In outer world, the earth is automatically moving around the sun. But in spirituality, one has to make efforts that his earth moves around its axis as well as around the sun. Similarly for moon also. Sun, earth and moon are supposed to represent praana/life, body and mind. The most important fact to note at the final place is the presence of a wooden post at the far east boundary. This can be taken to be indicating the cause of all causes. There is a statement in sacred texts that gods, after fulfilling their purpose, put it upside down so that nobody may be able to succeed. Gaayatri in somayaaga : One important aspect of Gaayatri chhanda which appears in somayaaga is the silent chanting by a priest at dawn in eastward direction. It has been stated that this chanting of mantras should be done when no bird has started it’s chirping. It means that Gaayatri affects at the innermost level. The chirping of birds can be taken as our inner voice. It has been stated in a sacred text that one has to inter Gaayatri through hair, Trishtup throughl skin, Jagati through flesh, Anushtup through bone and Pankti through bone marrow. This statement exists with variations in other texts. The noticeable thing is that hair on animal body have been equated with herbs on the earth. And the important characteristic of herbs is that these grow against the direction of gravitational force of the earth. One line out of three of Gaayatri chhanda has 8 letters in it and it can be said that the attracting force gradually develops from the first letter to the 8th one. Gaayatri has been called as the mouth in the body. The function of mouth is to taste the food, to develop taste in food. Just as there exist conscious and unconscious minds, in the same way the taste may be connected with conscious factor of a particular food.
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