Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.) Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.) Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. ) Chaakshusha - Chaamundaa (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.) Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.) Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. ) Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.) Chuudaalaa - Chori ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.) Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.) Chhaaga - Jataa (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.) Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.) Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.) Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.) Jayadhwaja - Jara ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. ) Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.) |
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Puraanic contexts of words like Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc. are given here. छाग देवीभागवत ७.३०.७३ (छगलण्ड तीर्थ में प्रचण्डा देवी के वास का उल्लेख), भविष्य ४.१४१.५५ (केतु के लिए छाग दान का उल्लेख), मत्स्य ९३.७२ (यज्ञों के अङ्ग व अग्नि के वाहन छाग से शान्ति प्रार्थना का विधान), स्कन्द ४.२.५३.१२८ (काशी में छागलेश्वर लिङ्ग दर्शन से पाप प्रकृति न होने का उल्लेख), ४.२.७०.७४ (छागवक्त्रेश्वरी देवी की महाष्टमी को पूजा का कथन), ४.२.७४.५२ (छागवक्त्र गण द्वारा काशी में ईशान कोण की रक्षा), ५.१.३४.७१ (स्कन्द को अग्नि द्वारा छाग देने का उल्लेख), ५.३.१९८.८० (छाग लिङ्ग में प्रचण्डा देवी का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.५३९.७३(एक छाग के अशुभत्व का उल्लेख), कथासरित् ७.५.७ (श्रुतवर्धन वैद्य द्वारा वीरभुज से पुत्रोत्पत्ति हेतु छगलक मंगवाना), १७.१.१०० (यज्ञ के लिए रखे गए छाग को व्याघ्र द्वारा खा जाना), १८.२.१३२ (ठिण्ठाकराल द्वारा छाग की आकृति वाले दिव्य भाण्ड का नृत्य देखना ) । chhaaga
छाया अग्नि २३३.८ (वार अनुसार छाया मान), गणेश २.९३.२५ (गणेश द्वारा छायारूप असुर का वध), देवीभागवत १.१९.५७(पुत्र शोक से पीडित व्यास द्वारा शिव के वरदान से पुत्र की छाया के दर्शन का उल्लेख), ९.१६.३१ (सीता से उत्पन्न छाया का द्रौपदी बनने का उल्लेख), ९.१९.२४(छाया से आहृत केयूर - युग्म की तुलसी को प्राप्ति), १२.६.५३ (गायत्री सहस्रनामों में से एक), १२.१०.५ (मणिद्वीप के त्रिजगत के छत्रीभूत होने के कारण ब्रह्माण्ड की छाया रूप होने का उल्लेख), पद्म १.८.४० (सूर्य तेज के असह्य होने से संज्ञा द्वारा अपनी छाया उत्पन्न करने, छाया द्वारा अपने पुत्र को अधिक स्नेह करने पर यम के क्रोध आदि का वर्णन), ब्रह्म १.४ (सूर्य - संज्ञा - छाया आख्यान), १.३०/३२.५२ (संज्ञा - छाया आख्यान), २.१९.९/९०.१९ (सूर्य - पत्नी), ब्रह्मवैवर्त्त २.१४.४९ (वास्तविक सीता की अग्नि से वापसी पर सीता की छाया द्वारा तप करने व द्रौपदी का अवतार लेने का वर्णन), २.१६.१३५(छाया के केयूर युग्म के हरण का उल्लेख), ४.८६.१३७ (श्रीदामा के शाप व श्रीहरि के वरदान से वृन्दा का राधा की छाया होने का वर्णन), ४.९६.७३ (श्रवणा द्वारा क्रोध से अपनी छाया चन्द्रमा को देकर पितृ गृह जाने का वर्णन), ४.११५.७९(मायावती के रति की छाया होने का उल्लेख), ब्रह्माण्ड १.२.२१.५३ (अग्नि व आप: की शुक्ल छाया व मेदिनी की कृष्ण छाया होने का उल्लेख), १.२.३६.९६ (सृष्टि द्वारा अपनी छाया से नारी का निर्माण, सृष्टि - पत्नी छाया के ५ पुत्रों के नाम), ३.४.३५.४७ (मार्तण्ड भैरव की ३ शक्तियों में से एक), भविष्य १.४७.८ (संज्ञा द्वारा छाया की उत्पत्ति कर स्वयं तपस्या के लिए चले जाना), भागवत ३.१२.२७ (ब्रह्मा की छाया से कर्दम की उत्पत्ति का उल्लेख), ८.५.४० (पुरुष/परमात्मा की छाया से पितरों की उत्पत्ति का उल्लेख), मत्स्य १५४.१७१ (नारद द्वारा पार्वती के चरण अपनी छाया से युक्त होने से व्यभिचारी होने का कथन), १५४.१९० (नारद द्वारा स्वच्छाया से युक्त चरणों के कथन की व्याख्या : पद्म समान चरण, स्वच्छ नख आदि), मार्कण्डेय ७७/७४ (संज्ञा - छाया आख्यान, छाया द्वारा यम को शाप आदि), वायु ६.२२(यज्ञवराह की पत्नी छाया का उल्लेख), ८४.४० (संज्ञा - छाया आख्यान), १०४.८२/२.४२.८२ (छायाओं में बौद्ध के न्यास का उल्लेख), योगवासिष्ठ ३.४.९ (वसिष्ठ - राम संवाद श्रवण काल में छाया का दीर्घ होना), ६.२.८०.१८, ६.२.८१.५ (प्रलयकाल में नर्तनरत भैरव रुद्र की सूर्य के अभाव में भी छाया कालरात्रि का वर्णन), वा.रामायण ४.४०.३७ (सुग्रीव द्वारा छाया पकडकर खींचने वाले राक्षसों के विषय में बताना), ४.४१.२६ (छाया पकडकर प्राणियों को खाने वाली राक्षसी अङ्गारका का उल्लेख), ५.१.१९० (हनुमान द्वारा छायाग्राही राक्षसी सिंहिका को पहचानने का वर्णन), ५.५८.३५ (सिंहिका द्वारा हनुमान की छाया ग्रहण का वर्णन), शिव २.१.१२.१५ (छाया द्वारा पिष्टमय लिङ्ग की पूजा), २.१.१२.३५ (छाया द्वारा पिष्टमय लिङ्ग की पूजा का उल्लेख), ५.१२.१९ (वृक्ष के पुष्प, फल व छाया से सर्वजन लाभ का कथन), ५.२८.३ (पुरुष द्वारा स्व छाया का निरीक्षण कर भविष्य ज्ञान करने का वर्णन), ५.३५ (संज्ञा - सूर्य - छाया आख्यान), स्कन्द २.७२.२७(वैशाख मास में छत्र दान न करने से छायाहीन पिशाच बनने का उल्लेख), ३.२.१३ (सूर्य - संज्ञा - छाया कथा), ४.१.१७.७७ (त्वष्टा प्रजापति की कन्या संज्ञा द्वारा अपनी छाया तैयार कर स्वयं पितृ गृह जाना, छाया द्वारा संज्ञा - तनय यम की अवहेलना आदि का वर्णन), ४.१.४२.२९(छाया दर्शन से मृत्यु के ज्ञान का कथन), ७.१.२६३ (छाया लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य : पापमुक्त होना), ७.२.१५.१०(दिव्य छाया वृक्षों का लक्षण - उदयास्त पर छाया न होना), लक्ष्मीनारायण १.६२ (सूर्य -संज्ञा - छाया कथा), १.३३४.५३ (सीता की छाया द्वारा द्रौपदी का अवतार लेने का कथन), २.२४६.३३ (स्व छाया आदि द्वारा अधिक्षिप्त को सहने व प्रतिक्षेप न करने का निर्देश ), वास्तुसूत्रोपनिषद ६.२१टीका(सूर्य सविता की अवलम्बिनी शक्ति) ; द्र. सुच्छाया । chhaayaa
छालिक्य हरिवंश २.८९.६७(छालिक्य गान का वर्णन तथा महत्त्व )
छिक्का लक्ष्मीनारायण २.५.३२ (बाल कृष्ण का घात करने को उत्सुक दैत्यों में से एक ) ।
छिद्र वायु ४९.१७३ (पृथिवी आदि ३ भूतों के परिच्छिन्न होने का कथन), विष्णुधर्मोत्तर १.२३९.११ (विराट् पुरुष के नासाछिद्रों में वासरों की स्थिति का उल्लेख), शिव ५.४१.३८ (भारद्वाज के ७ पुत्रों के जन्मान्तर में चक्रवाक बनने पर पञ्चम पुत्र का छिद्रदर्शी नाम), स्कन्द १.२.३३.६५ (शक्तिच्छिद्रेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : स्कन्द द्वारा तारक हेतु उदक कर्म का स्थान आदि), ५.२.२८.११ (ब्रह्म छिद्र, जप छिद्र आदि हेतु प्रायश्चित्त मन्त्र का कथन ) । chhidra
छिन्नकर्ण स्कन्द २.७.१४.३७ (दुर्वासा - शिष्य द्वारा धर्मच्युत होने पर छिन्नकर्ण नामक पिशाच होने का वर्णन ) ।
छिन्नमस्तक नारद १.८७.४ (छिन्नमस्ता : दुर्गा - अवतार, मन्त्र विधान का कथन), शिव ३.१७.७ (शङ्कर के दस नामों में से एक छिन्नमस्तक ) ।
छुछुन्दर गरुड १.२१७.२९ (गन्ध हरण से छुछुन्दर की योनि प्राप्ति का उल्लेख), २.२.६७(गन्ध हरण से छुछुन्दर योनि प्राप्ति का उल्लेख), मार्कण्डेय १५.३० (गन्ध की चोरी के फलस्वरूप छुछुन्दर होने का उल्लेख), विष्णुधर्मोत्तर २.१२०.२३ (शुभ गन्धों के हरण से छुच्छुन्दर योनि प्राप्ति का उल्लेख ) ।
छुरिका भविष्य ४.१३८.७७ (छुरिका मन्त्र), स्कन्द ६.१२०.१६ (वायु के अस्त्र छुरिका का उल्लेख ) ; द्र. क्षुरिका ।
छेदन अग्नि ३४८.६ (एकाक्षर कोश के अन्तर्गत छेदन द्वारा छ अक्षर का निरूपण ) ।
जगत गर्ग ७.१२.१३ (जगत के मिथ्यात्व का अगस्त्य द्वारा प्रद्युम्न को उत्तर देना), ब्रह्माण्ड २.३.७२.५०(जगत् के अग्नीषोमात्मक होने का कथन ; जगत् की देह में स्थिति का वर्णन), वायु ९७.५१/२.३५.५१(वही), विष्णु १.१.३१ (जगत् की विष्णु से उद्भूति, स्थिति का उल्लेख), योगवासिष्ठ ३.१४.७२(जगत के चित् होने के परिणामों का कथन), ३.१८.२८ (जगत भ्रान्ति), ३.८७.९ (दस ब्राह्मण - पुत्रों द्वारा ब्रह्मा की धारणा करके मनोव्योम में १० संसारों की सृष्टि करने का वर्णन), ५.८४ (मनोजगत), ६.१.२९.१३५ (स्वयं स्पन्दित होने से जगत नाम होने का कथन), ६.१.४१.५१ (जगत के मिथ्यात्व का प्रतिपादन), ६.२.७.१२ (जगत वृक्ष का वर्णन), ६.२.५५.१९ (चिद्व्योम रूपी जगत के परमार्थमयत्व का वर्णन), ६.२.५९+ (चिदाकाश में स्थित होकर जगत जाल के दर्शन का वर्णन), ६.२.६१.४ (जगत के परमार्थघन चिन्मात्र ब्रह्म का हृदय होने का कथन ; जगदाकाशैक बोध नामक अध्याय), ६.२.६२.४० (सर्ग स्वप्न में जगदुद्भव दर्शन के लिए चिद्व्योम रूपी द्रष्टा की आवश्यकता का वर्णन), ६.२.६३.३३ (मोक्ष रहित मृत्यु प्राप्त करने वाले जीवों को धारण करने वाले प्रतिजगत का कथन), ६.२.८६, ६.२.८७(जगत की अनन्तता), ६.२.९०.९(जल धारणा द्वारा जगत की अनुभूति का वर्णन), ६.२.९१ (तैजस धारणा द्वारा जगत की अनुभूति का वर्णन), ६.२.९२ (वायु धारणा द्वारा जगत की अनुभूति का वर्णन), ६.२.९४ (जगत का ब्रह्म से एक्य), ६.२.१०४ (जगत की असत्ता का प्रतिपादन नामक अध्याय), ६.२.१३९.२४ (प्रलय काल में जगत नाश वर्णन नामक अध्याय), ६.२.१७२ (जगत के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन नामक अध्याय) । jagata
जगती ब्रह्माण्ड १.२.९.४(गायत्र्यादि ३ अम्बिकाओं में से एक, त्रिकपालपुराडाश निर्माण का कथन), मत्स्य १९२.१६(शुक्ल तीर्थ में जगती दर्शन से भ्रूणहत्या पाप से मुक्ति का उल्लेख), २६२.२(पीठिका उच्छ्राय के १६ भागों में से ४ जगती भाग होने का उल्लेख), स्कन्द ५.३.८५.८९ (सोमनाथ की जगती की प्रदक्षिणा से सात द्वीपों वाली वसुन्धरा की प्रदक्षिणा फल की प्राप्ति आदि का कथन), लक्ष्मीनारायण १.३११.४१ (समित्पीयूष नृप की २७ पत्नियों में से एक, कृष्ण को फल व ताम्बूल अर्पित करना ) । jagatee/jagati Remarks by Dr. Fatah Singh सविता के आनन्दमय और विज्ञानमय कोश से मनोमय कोश में अवतरण से पूर्व पांच कर्मेन्द्रियों एवं पांच ज्ञानेन्द्रियों सहित अहं बुद्धि एवं मन की द्वादशी जगती की तूती बोलती है । जगदम्बा देवीभागवत १.५ (शिरविहीन विष्णु को शिरयुक्त करने हेतु देवों द्वारा जगदम्बा की स्तुति), १.१२.४० (सुद्युम्न / इला द्वारा जगदम्बा की स्तुति, सायुज्य मुक्ति प्राप्ति का उल्लेख), स्कन्द ४.२.७२.६१ (जगदीश्वरी देवी द्वारा उदरदरी की रक्षा की प्रार्थना का उल्लेख ) । jagadambaa
जगन्नाथ नारद २.५२.८० (जगन्नाथपुरी में गुप्त प्रतिमाओं की स्थापना का वर्णन), पद्म ७.१८.२३ (जगन्नाथ प्रसाद की महिमा), भविष्य ३.४.२०+ (विष्णु रूप जगन्नाथ का यज्ञांश देव से संवाद), स्कन्द २.२.० (जगन्नाथ क्षेत्र का वर्णन), २.२.१ (जगन्नाथ क्षेत्र का माहात्म्य), (विद्यापति द्वारा जगन्नाथ रूप का वर्णन), लक्ष्मीनारायण १.५८३ (पुरी में जगन्नाथ का वर्णन ) । jagannaatha
जगन्नायक भविष्य ३.३.३२.५५ (भगदत्त - अंश जगन्नायक का उल्लेख), ३.३.३२.१०३ (परिमल - सेनानी, जगन्नायक के मायावर्मा से युद्ध का वर्णन), ३.३.३२.१७६ (लक्षण से युद्ध में भगदत्त/जगन्नायक की मृत्यु ) ।
जघन मत्स्य ११०.६ (गङ्गा - यमुना के मध्य पृथ्वी का जघन स्थल प्रयाग तीर्थ), महाभारत शान्ति ३१७.३(जघन से प्राणों के उत्क्रमण पर पृथिवी लोक की प्राप्ति का उल्लेख), शिव ५.२९.२२(प्रधान पुरुष की जघन से असुरों की उत्पत्ति का उल्लेख), ५.४५.७५ (विष्णु द्वारा अपनी जघन पर मधु - कैटभ का वध करने का वर्णन ) । jaghana
जङ्गम गरुड २.१६.११(यमपुर में राजा जङ्गम का उल्लेख), पद्म २.१२३.५५(जङ्गम तीर्थ का माहात्म्य ?), महाभारत आदि १२७.५७(जङ्गम विष द्वारा स्थावर विष के नाश का कथन), आश्वमेधिक २१.१६(मन के स्थावर व जङ्गम प्रकारों का कथन), २१.२६(स्थावरत्व की दृष्टि से मन और जङ्गमत्व की दृष्टि से वाक् के श्रेष्ठ होने का कथन), लक्ष्मीनारायण ३.१८६.३१(स्थावर व जङ्गम तीर्थों के संदर्भ में जङ्गम तीर्थों के रूप में माता, पिता आदि जङ्गम तीर्थों के नाम ) jangama
जङ्गल पद्म २.५३.९९ (जङ्गली नामक नेत्र कृमि का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण ३.४४.२० (नेत्र में स्थित २ कृमियों में से एक),३.२०४.१ (जङ्गलदेव नामक भक्त काष्ठहार की कथा ) ।
जङ्घा देवीभागवत १२.४.९(जङ्घाओं में कौशिक का न्यास), महाभारत शान्ति ३१७.२(जङ्घा से प्राणों के उत्क्रमण पर वसुओं के लोक की प्राप्ति का उल्लेख), विष्णुधर्मोत्तर १.४२.१८(जङ्घाओं में धृति देवी की स्थिति), स्कन्द १.२.६२.२८(जङ्घाल : क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक ), द्र. जानुजङ्घ, तालजङ्घ, दीर्घजङ्घ, नाडीजङ्घ, प्रजङ्घ, लोहजङ्घ ।janghaa
जटा पद्म १.१५.११९(जटामुकुट का उल्लेख), १.४३.४०८(विवाह के समय शिव जटा में ब्रह्मा द्वारा चन्द्रखण्ड बांधने का उल्लेख), १.४६.१८(शिव की जटासटा के साथ सर्प शिखामणि का उल्लेख), २.२४.५ (कश्यप द्वारा एक अवलुंचित जटा का शुचि अग्नि में होम करके पुत्र उत्पन करने का कथन), ५.११६.९९(मृदुसूक्ष्म स्निग्ध जटाभिर्विरचित कपर्दं), ६.१०.३१ (वासुकि के श्वास - नि:श्वास से शिव की जटाओं पर स्थित चन्द्रलेखा के द्रवीभूत होने से गङ्गा का आविर्भाव, जटाओं से कीर्तिमुख गण के आविर्भाव की कथा), ६.१७.७५(यावद्रुद्रो जटाजूटं बबंध भुजगैर्दृढम्), ६.१३५.१२(जटामेकां परित्यज्य दत्ता गंगा तदा मया), ब्रह्म २.४.६३ ( विष्णु के चरण कमलों में अर्घ्यस्वरूप प्रदत्त जल का चार धाराओं में विभक्त होकर मेरु पर गिरना, दक्षिण धारा के महेश्वर की जटाओं में आगमन का निरूपण ), ब्रह्मवैवर्त्त २.५ ( पार्वती भय से गङ्गा का शिवजटा में अदृश्य होना, पार्वती द्वारा गङ्गा निष्कासन का उद्योग ), २.६( गौतम ब्राह्मण द्वारा शिव की स्तुति, गौतम के जटा सहित गङ्गा के एक भाग को लेकर ब्रह्मगिरि पर गमन का वृत्तान्त ), ४.५०.६ (दुर्वासा द्वारा सिर से जटा निकाल कर भूतल पर स्थापित कर राजा अम्बरीष को शाप देने हेतु उद्यत होने का प्रसंग), भागवत १०.८७.३९(यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः), मत्स्य १५४.४३५ (विवाह के समय शिव जटा में ब्रह्मा द्वारा चन्द्रखण्ड बांधने का उल्लेख), वराह १५०.४९ (जटा कुण्ड का वृत्तान्त), वामन ५५.६७ ( देवी की जटा से उत्पन्न चण्डमारी देवी द्वारा चण्ड - मुण्ड को पकड कर लाने का वर्णन), ६४.६९ (ऋतध्वज - पुत्र जाबालि के जटाओं से बंधने व मुक्त होने का वृत्तान्त), शिव २.२.३२.२५ (रुषा पर्वत पर शिव की जटा गिरने से दो भाग होना, वीरभद्र व महाकाली का प्रादुर्भाव), स्कन्द १.२.६२.२९(जटाल व अजटाल : क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से २), २.८.९.५५ (जटाकुण्ड में पिण्डदान के पितृ तुष्टिकारक होने का कथन), ३.१.२० (जटा तीर्थ का माहात्म्य : राम द्वारा जटाशोधन का स्थान, अज्ञान नाश हेतु शुक, भृगु , दुर्वासा, दत्तात्रेय द्वारा मन शुद्धि प्राप्ति का वर्णन), ५.१.३१.४ (जटा तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य : स्नान व जटेश्वर दर्शन से मातृ व पितृकुल का उद्धार ), ५.१.६१.७ (जटेश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य : सब यज्ञों के फल की प्राप्ति), ५.२.२८ (जटेश्वर तीर्थ का माहात्म्य : वीरधन्वा के जटीभूत पापों की निवृत्ति की कथा), ५.२.३५.५ (प्रजापति त्वष्टा द्वारा जटा की आहुति से इन्द्रशत्रु वृत्र के उत्पन्न होने की कथा), लक्ष्मीनारायण १.१७६.८९(सती के नाश पर शिव द्वारा दक्ष के नाश हेतु स्व जटा के ताडन, मार्जन आदि से कालिकादि गणों की सृष्टि), १.५७२.९ (तपोरत मातङ्ग ऋषि की जटाओं से यक्षिणियों का निकलना, यक्षिणियों द्वारा नर्मदा जल में स्नान से मुक्ति), २.२४७.२८ (चटका द्वारा ऋषि जटिलायन की जटा में घोंसला बनाकर अण्डे रखने की कथा), महाभारत आदि २०१.२८(सुन्द-निसुन्द द्वारा वर पाने के पश्चात् जटा त्याग कर मौलि /मुकुट धारण करने का उल्लेख), वन ३९.२७(तपस्याकाल में सदःस्पर्शन के कारण अर्जुन की जटाएं विद्युत् अम्भःरुहा के समान होने का श्लोक), १३६.९ (रैभ्य ऋषि द्वारा यवक्रीत वध हेतु जटा-द्वय होम से कृत्याएं उत्पन्न करने का कथन), १५७.२८(जटासुर द्वारा हरण पर युधिष्ठिर द्वारा अपने भार में वृद्धि से राक्षस की गति का हरण), शान्ति ३४२.२६ (शिव के नीलकण्ठ होने के संदर्भ में शुक्राचार्य द्वारा उखाडी गई शिर की जटाओं के सर्प बनकर शिव के दंशन का उल्लेख), अनुशासन १००.१६ (नहुष के स्वर्ग से पतन के संदर्भ में भृगु का अगस्त्य की जटाओं में प्रवेश करके नहुष को शाप देना ) ; द्र. एकजटा, त्रिजटा, हरिजटा । jataa |
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