Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.) Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.) Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. ) Chaakshusha - Chaamundaa (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.) Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.) Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. ) Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.) Chuudaalaa - Chori ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.) Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.) Chhaaga - Jataa (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.) Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.) Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.) Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.) Jayadhwaja - Jara ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. ) Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.) |
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पुराणों के माध्यम से छन्दों की प्रकृति पर प्रकाश : भागवत पुराण के १२ स्कन्धों में से प्रथम ६ के बारे में ऐसा अनुमान है कि यह द्वादशाह नामक सोमयाग के अभिप्लव षडह नामक प्रथम ६ दिवसों की व्याख्या हो सकते हैं । यह दिवस क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, विराट्, पंक्ति व अतिच्छन्दा छन्दों से सम्बद्ध कहे गए हैं ( शतपथ १२.२.४.२) । इससे आगे छन्दोम कहे जाने वाले ३ दिवस होते हैं जिन्हें क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप् व जगती से सम्बद्ध किया गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण ) । भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध में परीक्षित् द्वारा कलि द्वारा धर्म रूपी वृषभ का ताडन, शृङ्गी ऋषि द्वारा परीक्षित् को उत्तर न देना, परीक्षित् द्वारा कलि के प्रभाव से शृङ्गी ऋषि के गले में मृत सर्प डालना, ऋषि - पुत्र द्वारा परीक्षित् को तक्षक सर्प के दंशन से मृत्यु का शाप, परीक्षित् द्वारा शुकदेव का साक्षात्कार करने की कथाएं हैं । यह परिक्षित् कौन हो सकता है ? ऋग्वेद का तो कथन है कि परिक्षिता: पितरा पूर्वजावरी, अर्थात् जो पूर्व और अवर पितर हैं, वही परिक्षित् हैं । सामान्य भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि हमारी संसार में बिखरी हुई वृत्तियां ही परिक्षित् हैं जिनको गायत्री छन्द की सिद्धि के लिए समाप्त करना है । और सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है परिक्षित् द्वारा शुक का साक्षात्कार । ब्राह्मण ग्रन्थों में जिसे अज कहा गया है, वही यहां शुक हो सकता है । भागवत के द्वितीय स्कन्ध में विष्णु के विराट रूप का तथा सृष्टि विषयक वर्णन हैं । यह स्कन्ध त्रिष्टुप् से सम्बन्धित है । विराट रूप से तात्पर्य है कि देह के किसी अङ्ग को दक्षता के द्वारा कितना विराट रूप दिया जा सकता है । नल के आख्यान में नल के साथ २ विद्याएं जुडी हैं - अश्व विद्या व अक्ष विद्या । ऊपर के वर्णन में अक्ष विद्या का उल्लेख तो आ चुका है लेकिन अश्व विद्या का नहीं । भागवत के इस स्कन्ध में त्रिष्टुप् छन्द के इस महत्वपूर्ण गुण को स्पष्ट किया गया है । भागवत के तृतीय स्कन्ध में यज्ञवराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध करके पृथिवी का उद्धार, कर्दम व देवहूति का विवाह, देवहूति द्वारा तप करके कपिल मुनि को पुत्र रूप में प्राप्त करना और कपिल के उपदेश से देवहूति व कर्दम के मोक्ष की कथाएं हैं । तृतीय स्कन्ध जगती छन्द से सम्बन्धित है और जिस अक्ष का निर्माण त्रिष्टुप के संदर्भ में अपेक्षित होता है, वहीं जगती के संदर्भ में इसे पृथिवी का हरण करने वाला कहा जा रहा है । इसकी आगे व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । कर्दम, कीचड को वही क्रूर वाक्, क्रूर दृष्टि, ऊर्जा का क्षय कहा जा सकता है जिसको ऊपर जगती छन्द के संदर्भ में स्पष्ट किया जा चुका है । देवहूति से तात्पर्य दिव्य वर्षा की अभीप्सा करने वाला हो सकता है, जिस प्रकार मण्डूक को वर्षा की अभीप्सा करने वाला कहा जाता है । भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव के तप का आख्यान, पुरञ्जन उपाख्यान, पृथु द्वारा विराज गौ रूपी पृथिवी को समतल बनाना, ब्रह्माण्ड के विभिन्न वर्गों द्वारा विराज गौ के दोहन की कथाएं हैं । यह स्कन्ध विराट् और संभवतः अनुष्टुप् छन्द से भी सम्बन्धित है । अनुष्टुप् छन्द की पहली आवश्यकता ध्रुव स्थिति का निर्माण है जिससे परा वाक् में उत्पन्न संकेत या शकुन वैखरी वाक् तक अवतरण करने में समर्थ हो सके । ध्रुव का अर्थ चञ्चलता, अव्यवस्था को समाप्त करना हो सकता है । यह विचारणीय विषय है कि भौतिक विज्ञान में यदि किसी संकेत का कम एण्ट्रांपी के तन्त्र से प्रेषण किया जाता है तो क्या वह उच्च एण्ट्रांपी के तन्त्र द्वारा ग्रहण किया जा सकता है ? अनुमान है कि ऐसी स्थिति में संकेत से महत्त्वपूर्ण सूचनाएं नष्ट हो जाएंगी । सोमयाग के संदर्भ में आग्नीध्र के पुर को अनुष्टुप् से सम्बद्ध कहा गया है जो आधा बहिर्वेदी में और आधा अन्तर्वेदी में होता है । पुर का निर्माण, एक निश्चितता का निर्माण, ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा में प्रतिष्ठा अनुष्टुप् की विशेषता है । पुर में कोई हानि नहीं हो सकती । भागवत का यह स्कन्ध पुर की अन्य प्रकार से व्याख्या करता है । फिर त्रिष्टुप् के संदर्भ में तो विराट् बनने की बात थी, यहां विराज गौ रूपी पृथिवी का दोहन करके उससे अभीप्सित फल प्राप्त करने की बात है । शतपथ ब्राह्मण ४.२.४.२२ का कथन है कि गायत्री यजमान के लिए सब कामों का दोहन करने के लिए तैयार रहती है । दोहन ध्रुव पात्र में किया जाता है । सोमयाग में भी यज्ञायज्ञीय अनुष्टुप् साम के पश्चात् अभीष्ट वरों की प्राप्ति की जाती है । यह कहा जा सकता है कि यह वाक् की दक्षता है । त्रिष्टुप् दक्षिण में है तो अनुष्टुप् उत्तर दिशा में । शतपथ ब्राह्मण में पांचवें छन्द पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पंक्ति छन्द पृथु होता है । लेकिन पृथु की कथा भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में आ चुकी है । अतः भागवत के अन्य स्कन्धों की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । भागवत के सातवें, आठवें व नवम स्कन्ध फिर गायत्री, त्रिष्टुप् और जगती छन्दों से सम्बन्धित हैं और जैमिनीय ब्राह्मण के तृतीय काण्ड में द्वादशाह के संदर्भ में छन्दोमों की व्याख्या करते समय कहा गया है कि इन छन्दोम दिनों में छन्दों के सम्पूर्ण अक्षर मिलकर स्तोमों के समकक्ष प्रभाव वाले बन जाते हैं । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गायत्री पहले ४ अक्षरों वाली ही थी । फिर उसने त्रिष्टुप् के १ और जगती के ३ अक्षर ग्रहण कर लिए और वह ८ अक्षरों वाली बन गई । यदि गायत्री के तीनों पदों के अक्षरों को गिनें तो वह २४ होते हैं । इसी प्रकार अन्य छन्दों के विषय में भी कहा जा सकता है । यह छन्दों का क्रमशः विकसित होता हुआ रूप है । भागवत के नवम स्कन्ध में विभिन्न राजर्षियों के तप की कथाएं हैं । यह स्कन्ध जगती छन्द से सम्बन्धित है । इसमें भगीरथ द्वारा अपने पितरों की अस्थियों के उद्धार के लिए गङ्गा के अवतारण की कथा जगती के संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है । ऐतरेय आरण्यक में जगती को अस्थि कहा गया है और इस आधार पर जगती की व्याख्या की जा सकती है । वैदिक साहित्य के अनुसार इस विश्व की २ प्रकार की स्थितियां हैं - एक गतिशील, स्वयं स्पन्दनशील और दूसरी ठहरी हुई, तस्थुष: । रात्रि ऐसी होती है जहां जगती की गति स्तम्भित हो जाती है ( ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं - ऋग्वेद ) । जैसा के ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है, जगती सबसे अधिक अव्यवस्थित ऊर्जा के साथ व्यवहार करता है । इस अव्यवस्था को चञ्चलता भी कह सकते हैं । अतः इस चञ्चलता को विराम देना अभीष्ट है । पुराणों में कथा आती है कि गौ ने सभी देवों को अपने शरीर में स्थान दिया लेकिन लक्ष्मी को नहीं दिया क्योंकि लक्ष्मी चञ्चल है । अन्त में लक्ष्मी को शकृत या गोबर में स्थान दिया गया । विष्णु जिस शेषनाग पर शयन करते हैं, वह शेष भी शेष ऊर्जा, ऊपर वर्णित वही चञ्चल ऊर्जा हो सकता है । विष्णु इस चञ्चल ऊर्जा को व्यवस्थित कैसे करते हैं, यह अन्वेषणीय है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में कृष्ण व रुक्मिणी के विवाह के वर्णन में सावित्री व गायत्री की हास्योक्तियां दी गई हैं । सावित्री अपनी हास्योक्ति में विदग्ध शब्द का प्रयोग करती है जबकि गायत्री अक्षोभ्य । गायत्री के संदर्भ में अक्षोभ्य व सावित्री के संदर्भ में विदग्ध शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । सावित्र ग्रह की प्रतिष्ठा सोमयाग में तृतीय सवन में होती है जो जगती से सम्बन्धित है । गायत्री के संदर्भ में पहले ही कहा जा चुका है कि वह अज स्थिति से सम्बन्धित है । देवीभागवत पुराण के स्कन्ध १२ में गायत्री गौतम ऋषि को अक्षय अन्न पात्र प्रदान करती है । इसका व्यावहारिक रूप क्या होगा, यह अन्वेषणीय है । वैसे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में गायत्री के साथ अक्षोभ्य शब्द जोडने और देवीभागवत पुराण में अक्षय अन्न पात्र प्रदान करने में बहुत साम्य है । अक्षोभ्य स्थिति ही अक्षय अन्न पात्र हो सकती है । स्कन्द पुराण व पद्म पुराण आदि में ब्रह्मा के सोमयाग में इन्द्र द्वारा गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी बनाने व यज्ञ के अन्त में सावित्री के शाप व गायत्री के उत्शापों का वर्णन है ।
छन्दों व ग्रहों का सम्बन्ध : ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री छन्द को उपांशु ग्रह से, त्रिष्टुप् को अन्तर्याम ग्रह से(तैसं ३.१.६.२), जगती को शुक्र ग्रह से, अनुष्टुप् को मन्थी ग्रह से व पंक्ति को आग्रयण ग्रह से सम्बद्ध किया गया है । इसमें शुक्र ग्रह की व्याख्या महाभारत के एक स्थल के आधार पर की जा सकती है । शुक्र या शुक्ल वर्ण साधना की चरम परिणति है । इससे पूर्व कृष्ण, नील, हरित , पीत आदि वर्ण आते हैं । अतः जगती छन्द को शुक्र ग्रह के साथ सम्बद्ध करना उपयुक्त ही है क्योंकि जगती छन्द पापों के क्रमिक नाश से सम्बन्धित है । शुक्र ग्रह के लिए मन्त्र में कहा जाता है कि निरस्तो शण्ड: । शण्ड को पुराणों में शाण्डिल्य ऋषि के आधार पर समझ सकते हैं । पापों का नाश करके षण्ढ स्थिति को प्राप्त करना शाण्डिल्य ऋषि का प्रतीक हो सकता है । अनुष्टुप् छन्द के मन्थी ग्रह के संदर्भ में मन्त्र अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा इत्यादि आता है । वेन की कथा भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में आती है जिसके मन्थन से निषाद व पृथु की उत्पत्ति होती है । अनुमान है कि ऐसा कोई विचार जो सारे व्यक्तित्व का मन्थन करके रस दे, मन्थी ग्रह से सम्बन्धित हो सकता है । अन्य छन्दों के अन्य ग्रहों की व्याख्याएं अपेक्षित हैं ।
Paper presented at World Congress on Vedic Sciences, Bangalore, 9-13 August, 2004 Revised : 27-12-2008 AD( Pausha amaavaasyaa , Vikrama samvat 2065)
छन्दस् १. अति वा एषो अन्यानि छन्दांसि यदतिच्छन्दाः । जै २, ३९२ । २. अद्भ्यः सोमꣳ व्यपिबच्छन्दोभिर्हꣳसः शुचिषत् । मै ३, ११, ६ । ३. उखा निर्माणम् -- अष्टास्तनां करोति छन्दसां दोहाय । तैसं ५, १, ६, ४ । ४. इन्द्रियं वीर्य्यं छन्दाꣳसि । तां ६, ९, २६ । ५. उपबहर्णं ददाति । एतद्वै छन्दसां रूपम् । क ४४, ४ । ६. ऋत्विजो वृणीते, छन्दाꣳ स्येव वृणीते, सप्त वृणीते, सप्त ग्राम्याः पशवः, सप्ताऽऽरण्याः, सप्त छन्दाꣳसि । तैसं ६, ३, ७, ५। ७. एकाक्षरं वै देवानामवमं छन्द आसीत्सप्ताक्षरं परमन्नवाक्षरमसुराणामवमं छन्द आसीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । तां १२,१३, २७ (तु. जै १,१९३; १९७) । ८. छन्दसां वीर्यम् आदाय तद् वः प्र दास्यामीति स छन्दसां वीर्यम् आदाय तद् एभ्यः प्रायच्छत् ....एतद्वै छन्दसां वीर्यमाश्रावयास्तु श्रौषड् यज ये यजामहे वषट्कारः । तैसं ३, ३,७,२-३ । ९. एतानि [एतावन्ति [काठ.] (गायत्री, त्रिष्टुप् , जगती, अनुष्टुभ् ) ] वै छन्दाꣳसि यज्ञं वहन्ति । मै १, ४, ११; काठ १२,६ । १०. कतम एते देवा इति छन्दाꣳसीति ब्रूयाद्गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमिति । तैसं २, ६,९,३-४ ॥ ११. कपालैश्छन्दाꣳसि (भ्रातृव्यस्याप्नोति)। काठ १०, १ । १२. गायत्रं छन्दो ऽनुप्रजायस्व त्रैष्टुभं जागतमित्येतावन्ति वै छन्दाꣳसि । काठ २६, ७; क ४१, ५। १३. गायत्र्यै ... त्रिष्टुभे जगत्या अनुष्टुभे... एतावन्ति वै छन्दाꣳसि । काठ ३४, ४ । १४. चत्वारि छन्दांसि (+यज्ञवाहो गायत्री, त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् । जै.) । तैसं ५,१,१,४; २,१,२; ३,४; जै १,३००, २, ४३१ (तु मै ३, १, २, २,३; काठ १९, ४, २१, ८; क ३१, ३)। १५. छन्दः प्रतिष्ठानो वै यज्ञः (+ छन्दःसु वावास्यैतद् यज्ञं प्रतिष्ठापयामकः [मै.1)। मै ३,६,५; काठ २३,२। १६. छन्दसां वा एतन्निरूपꣳ यदुपबर्हणं सर्वसूत्रम् । मै १,६,४ । १७. छन्दसां वा एष रसो यद् वशा। तैसं २,१,७,२ । १८. छन्दसां धेनवः (रूपम् ) । काठ १२,४। १९. छन्दाꣳसि खलु वा एतं नोपनमन्ति यं मेधा नोपनमति । तैसं ३,४,९,५। २०. छन्दाꣳसि खलु वा एतमभिमन्यन्ते यस्य ज्योगामयति छन्दोभिरेवैनमगदं करोति । तैसं ३,४,९,३ । २१. छन्दाꣳसि खलु वै सोमस्य राज्ञः साम्राज्यो लोकः । तैसं ३,१,२,१ । २२. छन्दाꣳसि गच्छ स्वाहेत्याह, पशवो वै छन्दाꣳसि । तैसं ६,४,१,३ । २३. छन्दांसि छन्दयतीति वा। दै ३,१९। २४. छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् (यज्ञात् )। काठसंक १०० : १८ । २५. छन्दाꣳसि देविकाः (देव्यः [मा श.])। काठ १२,८; माश ९, ५,१,३९ (तु. तैसं ३,४,९, १; मै ४, ३, ५; कौ १९, ७)। २६. छन्दाꣳसि मीयमानः (सोमः) । काठ ३४,१४ । २७. छन्दांसि यदयजन्त तेषां बृहत्येवोदगायत् । जै ३,३६९ । २८. छन्दाꣳसि वरुणपाशाः (+वै वरुणस्य [मै.1) । मै २,३,३; काठ १२,६ । २९. छन्दाꣳसि वा अग्नेर्वासः । छन्दाꣳस्येष वस्ते (छन्दोभिरेवैनं परिदधाति [काठ..) । मै ३,१,५; काठ १९,५ (तु. क ३०,३)। ३०. छन्दाꣳसि वाऽ अस्य सप्त धाम प्रियाणि । माश ९,२,३,४४ । ३१. छन्दाꣳसि (+वै [मै १,१०,९; काठ.]) वाक् । मै १,१०,९; ४,८,८; काठ ३६,३। ३२. छन्दांसि वाव देवानां गृहाः ।...गायत्र्यैव वसवो गृहिणः । त्रिष्टुभैव रुद्रा गृहिणः ।... जगत्यैवादित्या गृहिणः । अनुष्टुभैव विश्वेदेवाः । जै १,२८० । ३३. देवा वै देवाश्वान् देवरथेषु युक्त्वेमान् लोकान् अभ्यारोहन्। छन्दांसि वाव देवाश्वा, स्तोमा देवरथाः । जै ३,३१३ । ३४. छन्दांसि वृषगणा (सि वै दिशः [माश.)। जै ३,१७४; माश ८,३,१,१२, ९,५,१,३९ । ३५. छन्दाꣳसि वै देवाः प्रातर्यावाणः । मै ४,५,३; माश ३,९,३,८ । ३६. छन्दाꣳसि वै देवानां वामं पशवः । तैसं ५,३,८,१ मै ३.२,६, ३,२ । ३७. पञ्चवैश्वदेवेष्टकोपधानम्-- छन्दाꣳसि वै देवा वयोनाधाः । छन्दोभिहींदꣳ सर्वं वयुनं नद्धम् । माश ८, २, २, ८ ! ३८. छन्दांसि वै दैवानि पवित्राणि तैर्द्रोणकलशं पावयन्ति। वसवस्त्वा गायत्रेण च्छन्दसा पुनन्तु .... । तां ६, ६, ६ । ३९. छन्दांसि वै धुरः (विराट् [मै.J)। मै ३, ८,४; जै ३, २१० । ४०. छन्दांसि वै पञ्च पञ्चजनाः । मै १, ४, ९, काठ ३२, ६ । ४१. छन्दाꣳसि वै लोमानि । माश ६, ४,१, ६, ७, १, ६; ९, ३,४, १० । ४२. छन्दांसि वै वाजिनः । मै १, १०,९; गो २,१,२०; तै १,६, ३, ९। ४३. छन्दाꣳसि वै व्रजो गोस्थानः । मै ४,१,१०; काठ ३१,८; तै ३,२,९,३ (तु. क. ४७,८)। ४४. छन्दाꣳसि वै संवेश उपवेशः । तैसं ३, १, ७, २; ७, ५,५, १; तै १, ४, ६, ४ । ४५. छन्दांसि वै सर्वां देवताः (वाक् (जै २, ३०१ ) । जै १, ३४२, २,३०१ । ४६. ते ह नाकम्महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा इति छन्दांसि वै साध्या देवास्ते ऽग्रे ऽग्निमयजन्त ते स्वर्गं लोकमायन् । ऐ १, १६। ४७. छन्दांसि वै स्वर्गो (स्वाराज्यो [जै २,३४७]) लोकः । जै २, २२४; ३४७; ३८१ । ४८. पशवो वै देवानां छन्दांसि ।..... छन्दाꣳसि वै हारियोजन: ( ग्रहः ) । माश ४, ४, ३, २।। ४९. छन्दाꣳसि समिद्धानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । माश १, ३, ४,६ । ५०. छन्दांसि सावित्री । गो १, १, ३३; जैउ ४,१२, १, ७ ॥ ५१. छन्दाꣳसि (+वै [काठ.J) सौपर्णानि (सौपर्णेयाः ।तैसं.)। तैसं ६, १, ६, १; काठ २३,१; क ३७,१। ५२. छन्दाꣳसीव खलु वै पशवः । तैसं ३, ४, ९, १-२ । ५३. छन्दाꣳसीव खलु वै प्रजाः ( रुक् [तैसं ३, ४, ९, ६ ] ) । तैसं ३, ४, ९, १; ६ । ५४. आतिथ्येष्टिः--स मन्थति । गायत्रेण त्वा च्छन्दसा मन्थामि त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा मन्थामि जागतेन त्वा च्छन्दसा मन्थामीति तं वै च्छन्दोभिरेव मन्थति छन्दांसि मथ्यमानायान्वाह छन्दांस्येवैतद्यज्ञमन्वायातयति यथामुमादित्यं रश्मयो। माश ३,४,१,२३ ५५. छन्दोभिर् (देवाः) अमुष्मिन् ( द्युलोक आर्ध्नुवन् ) । तैसं ५, २, १, ६। ५६. छन्दोभिरेव तद् रक्षः पाप्मानमपघ्नते। जै १, ८६। ५७. छन्दोभिरेव भ्रातृव्यमवबाधते । काठ २५, ९; क ४०, २॥ ५८. छन्दोभिर् (+वै [तैसं.J) देवाः स्वर्गं ( सुवर्गं । तैसं. ] लोकमायन् । तैसं ५, २,३, ४; क ४६,५। ५९. छन्दोभिर्बृहस्पतिर्गणी । मै २, २, ३ । ६०. छन्दोभिर्यज्ञस्तायते । जै २, ४३१ । ६१. छन्दोभिर्वै देवा आदित्यꣳ स्वर्गं लोकमहरन् । तां १२, १०, ६ । ६२. छन्दोभिर्हि स्वर्गं लोकं गच्छन्ति । माश ६, ५, ४, ७ । ६३. ज्यैष्ठयं वै जगती छन्दसाम् । जै २, २८६। ६४. तं (सोमं देवाः) छन्दोभिरसुवन्त तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । तै २, २, ८, ७ ६५. तद्यदेनान (देवान् ) छन्दांसि मृत्योः पाप्मनोऽछादयंस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । जै १,२८४ । ६६. तव छन्दसेत्यग्निमब्रुवन् (देवाः) । जै १,२११ । ६७. तानीमानि छन्दांस्यब्रुवन्नियं (गायत्री) वाव नश् श्रेष्ठेयं वीर्यवत्तमा या सोममाहार्षीत् या यज्ञं ततैताम् एवाप्ययामेति। तान् त्रिष्टुब्जगत्यौ सवनाभ्याम् अप्यैताम्।…. जै १,२८९। ६८. चतुष्चत्वारिंशच्छन्दस्येष्टकोपधानम्-- तान्यस्मा (प्रजापतये) अच्छदयंस्तानि यदस्माऽअच्छदयंस्तस्माच्छंदाꣳसि । माश ८,५, २,१। ६९. तान्यस्य (यजमानस्य छन्दांसि) प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । तैसं ५, १,१,११ ७०. ते (देवाः) छन्दोभिरात्मानं छादयित्वोपायन् तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । तैसं ५,६,६,१ । ७१. ते देवा अब्रुवन् या एवेमा देवताश्छन्दांसि पुरुषे प्रविष्टा एताभिरेवासुरान् धूर्वामैवेति । जै १,९८ । तेषां प्राणम् एव गायत्र्यावृञ्जत चक्षुस् त्रिष्टुभा श्रोत्रं जगत्या वाचम् अनुष्टुभा। अस्माद् एवैनान् लोकाद् गायत्र्यान्तरायन्न् अन्तरिक्षात् त्रिष्टुभामुष्माज् जगत्या पशुभ्यो ऽनुष्टुभा। तान् सर्वस्माद् एवान्तरायन्। ततो वै देवा अभवन् परासुराः। जै १.९९ ७२. त्रीणि ह वै छन्दांसि यज्ञं वहन्ति गायत्री त्रिष्टुब् जगती। तद् एवानुष्टुब् आन्ताद् अन्वायत्ता। तया देवास् स्वर्गं लोकम् अजिगांसन्। तया न व्याप्नुवन्। तस्यां चतुष्पदः पशून् उपादधुर् गां चाश्वं चाजां चाविं च। तया व्याप्नुवन्। ते ऽब्रुवन् स्वर्गं लोकं गत्वा बृहती वा इयम् अभूद् ययेदं व्यापामेति। तद् एव बृहत्यै बृहतीत्वम्। जै १, १२०. त्रीणि वाव छन्दांसि, त्रीणि सवनानि, त्रयः प्राणापानव्यानास्, त्रय इमे लोकाः। जै २,३६० ७३. देवा असुरान् हत्वा मृत्योरबिभयुस्ते छन्दाꣳस्यपश्यꣳस्तानि प्राविशꣳस्तेभ्यो यद्यदछदयत्तेनात्मानमछादयन्त, तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । मै ३,४,७ । ७४. देवा वै च्छन्दांस्यब्रुवन् युष्माभिः स्वर्ग्यंल्लोकमयामेति ते गायत्रीं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवंस्त्रिष्टुभं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवञ्जगतीं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवन्ननुष्टुभं प्रायुञ्जत तयाल्पकादि न व्याप्नुवंस्त आसां दिशां रसान् प्रबृह्य चत्वार्यक्षराण्युपादधुः सा बृहत्यभवत् तयेमांल्लोकान् व्याप्नुवन्। तां ७,४,२। ७५. देवासुरा (छन्दस्सु) अधिसंयत्ता आसन् । जै १, १९६। ७६. न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति न द्वाभ्याम् । ऐ १,६, २,३७ । ७७. नवाक्षरम् (छन्दः) असुराणामवममासीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । जै १,१९७ । ७८. न ह्येकेनाक्षेरणान्यच्छन्दो भवति नो द्वाभ्याम् । कौ २७, १। ७९. नाक्षराच्छन्दो व्येत्येकस्मान्न द्वाभ्यां न स्तोत्रियया स्तोमः । माश १२,२,३,३। ८०. अतिरात्र-वाजपेयाप्तोर्यामादिषु वैशिष्ट्यम्-- पञ्च च्छन्दांसि रात्रौ शंसत्यनुष्टुभं गायत्रीमुष्णिहं त्रिष्टुभं जगतीमित्येतानि वै रात्रिच्छन्दांसि । कौ ३०, ११ । ८१. अश्वमेधीयस्तोत्रसम्बन्धि ऋगाद्यभिधानम्-- परमा वा एषा छन्दसां यदनुष्टुक् परमश् चतुष्टोम स्तोमानाम् परमस् त्रिरात्रो यज्ञानाम् परमो ऽश्वः पशूनाम् । तैसं ५,४,१२,१। ८२. पशवश्छन्दाꣳसि । मै ४,३,५; काठ १२,८; १९, १०, क ३०, ८; ऐ ४, २१; कौ ११,५; तां १९,५,११ (तु. तैसं ५, २, ३, ५, ३,८,१; मै १,६,४; ३,२,८; ४,७,५; क ६१,१९, जै २,१०३; माश ७,५,२,४२, ८,३,१,१२)। ८३. पशवो वै देवानां छन्दाꣳसि तद्यथेदं पशवो युक्ता मनुष्येभ्यो वहन्त्येवं छन्दाꣳसि युक्तानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । माश १,८,२,८ ४,४,३,१।। ८४. प्रजापतिर् (प्राणा [कौ.) वै छन्दाꣳसि । मै ४,५,३; ७,५; कौ ७,९, ११,८, १७,२ । ८५. प्रजापतेर्वा एतान्यङ्गानि यच्छन्दांसि । ऐ २, १८ । ८६. अग्निचिति-ब्राह्मणम्-- प्राणा वा एतानीतराणि छन्दाꣳसि । वागनुष्टुप् । यदनुष्टुभा सप्तमं जुहोति वाचं वा एतत् प्राणेषूपसंदधाति- मै ३,१,९ । ८७. बृहती छन्दसाꣳ स्वाराज्यं परीयाय । तैसं ५.३,२,४ ।।
८८.
छन्दोभिधेष्टकाभिधानम्— गायत्रीः
पुरस्ताद् उप दधाति तेजो वै गायत्री तेज एव छन्दोभिधेष्टकाभिधानम्— बृहतीरुष्णिहाः पङ्क्तीरक्षरपङ्क्तीरिति विषुरूपाणि छन्दाꣳस्युपदधाति ... विषुरूपानेव पशूनवरुन्धे । तैसं ५,३,८,२-३ । ८९. बृहती वाव (वै ।जै.) ) छन्दसां स्वराट् । जै ३, ५, तां १०, ३, ८ । ९०. बृहस्पतिश् (यज्ञश् [काठ.1) छन्दाꣳसि । मै २, २, ३; काठ ३२, ६ । ९१. बृहस्पतिश्छन्दोभिः ( उदक्रामत् ) । मै १,९, २, ८; काठ ९, १० । ९२. ब्रह्म (ब्राह्मणा ।तैसं २, ६,९, ४]) वै छन्दाꣳसि। तैसं २, ६, ९,४, ५, ६, ६, १; मै ३, १, २, ७, २,३, ३,५, ६,३ (तु. जै १, ३१३)। ९३. मुखं विराट् छन्दसाम् । जै ३, ३००। ९४. सावित्राहुत्यभ्रिस्वीकारयोरभिधानम्-- छन्दाꣳसि देवेभ्यो ऽपाक्रामन् न वो ऽभागानि हव्यं वक्ष्याम इति तेभ्य एतच् चतुर्गृहीतम् अधारयन् पुरोऽनुवाक्यायै याज्यायै देवतायै वषट्काराय यच् चतुर्गृहीतं जुहोति छन्दाꣳस्य् एव तत् प्रीणाति तान्य् अस्य प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । तैसं ५, १,१, १ । ९५. तस्योष्णिग्लोमानि त्वग्गायत्री त्रिष्टुम्मांसमनुष्टुप्स्नावान्यस्थि जगती पङ्क्तिर्मज्जा प्राणो बृहती स च्छन्दोभिश्छन्नो यच्छन्दोभिश्छन्नस्तस्माच्छन्दांसीत्याचक्षते, इति । छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात्कर्मणो यस्यां कस्यांचिद्दिशि कामयते य एवमेतच्छन्दसां छन्दस्त्वं वेद । ऐआ २,१,६ । ९६. यदुपतिष्ठते, छन्दोभिर्वा एतत्पशूननुपश्यति, छन्दोभिरेनान् पुनरुपह्वयते । मै १, ५, १२।। ९७. अथ यत्समिधमभ्यादधाति । छन्दांस्येवैतत्समिन्द्धेऽथ यद्धोता प्रातरनुवाकमन्वाह छन्दांस्येवैतत्पुनराप्याययत्ययातयामानि करोति यातयामानि वै देवैश्छन्दांसि छन्दोभिर्हि देवाः स्वर्गं लोकं समाश्नुवत । माश ३, ९, ३, १० । ९८. मरुत्स्तोमो वा एष यानि क्षुद्राणि छन्दांसि तानि मरुताम्। तां १७, १, ३ ।। ९९. याम् (दक्षिणाम् ) आर्षेयाय शुश्रुवुषे ददाति छन्दाꣳसि तया प्रीणाति । मै ४, ८,३ । १००. वाक् सुपर्णी, छन्दाꣳसि सौपर्णानि । गायत्री त्रिष्टुब् जगती । मै ३, ७, ३ । १०१. वाग् (रसो [माश.) वै छन्दाꣳसि । मै १, ११, ८, ३, ६, ५, काठ १४, ८; माश ७,३,१, ३७। १०२. विराट् (+हि [तां. 1) छन्दसां ज्योतिः । तैसं ५, ३, २, ३, काठ २०, ११; क ३१, १३; तां १०, २, २ । १०३. विराड् वै सर्वाणि छन्दाꣳसि । मै ३, ४, ६ । १०४. विष्णुमुखा वै देवाश्छन्दोभिरिमांल्लोकाननपजय्यमभ्यजयन् ..... विष्णोः क्रमो ऽस्य् अभिमातिहेत्य् आह गायत्री वै पृथिवी त्रैष्ठुभम् अन्तरिक्षम् । जागती द्यौः । आनुष्टुभीर् दिशः ।। तैसं ५, २, १, १ १०५. वीर्यं वै छन्दाꣳसि । तैसं ५, १, ६, ४; तैआ ५, ३, ४ । १०६. श्रीर्वै यशश्छन्दसां बृहती। ऐ १,५। १०७. इतः प्रथमं जज्ञे अग्निः स्वाद् योनेर् अधि जातवेदाः । स गायत्रिया त्रिष्टुभा जगत्या देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन्न् इति छन्दोभिर् एवैनꣳ स्वाद् योनेः प्र जनयत्य् । तैसं २,२,४,८ । १०८. सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांसि । जै ३, ८६ । १०९. सप्त (षड् वै [मै ३, ४, ४; जै.) छन्दाꣳसि । तैसं २, ४,६,२, ५, १, ९, १; ७, २, २,१; मै ३,४,४, ७,६; जै १, ८६; १३१; माश ९, ५, २, ८ । ११०. सप्त वै छन्दाꣳसि (+सप्त ग्राम्याः पशवः, सप्तारण्यास्तानेवैतदुभयान् प्रजनयति (माश.] ) । मै १, ११, ८, ३,१, ७, ३,५, ६,३, काठ १४, ८; क ३५,७; कौ १४,५; १७, २; जे २, १२७, २००; ३०१, ३४७; ४३१; माश ३, ८, ४, १६; शांआ २, ६ (तु. काश ४, ८, ४, ११)। १११. सप्त वै पात्राणि पुनः प्रयोगमर्हन्ति । तानि हि बन्धुमन्ति सप्त छन्दाꣳसि । मै ४,८८ । ११२. सप्त हस्तास इति, सप्त छन्दांसि, तस्मात् सप्तार्चिषः सप्त समिधः सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त । काठसंक २५ : २-४ । ११३. सर्वाणि छन्दांसि बृहतीमभिसंपन्नानि । जै १, ३१६ । ११४. सर्वैर्वै छन्दोभिरिष्ट्वा देवाः स्वर्गं लोकमजयन् । ऐ १, ९ । ११५. साम वै देवाः प्रजाश्छन्दांसि । जै १, २७७ । ११६. स्तोमाश्च ह खलु वै छन्दांसि च सर्वा देवताः । जै २, ३५० । ११७. स्वाराज्यं छन्दसां बृहती । तां २४, ६, ३ । ११८. हिरण्यममृतानि छन्दाꣳसि । माश ६, ३, १, ४२॥ यन् मृदा चाद्भिश् चाग्निश् चीयतेथ कस्माद् अग्निर् उच्यत इति यच् छन्दोभिश् चिनोत्य् अग्नयो वै छन्दाꣳसि तस्माद् अग्निर् उच्यते – तैसं ५.७.९.३ एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यच्छन्दाꣳसि – काठ २०.१ छन्दाꣳसि खलु वा अग्नेः प्रिया तनूः- तैसं ५.१.५.३, २.१.२ छन्दोभिर्वा अग्निरुत्तरवेदिमानशे – काठ २०.५ छन्दाꣳस्यङ्गानि (सुपर्णस्य गरुत्मतः).... विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा गायत्रं छन्द आरोह पृथिवीमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽस्यभिमातिहा त्रैष्टुभं छन्द आरोहान्तरिक्षमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽस्यरातीयतो हन्ता जागतं छन्द आरोह दिवमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽसि शत्रूयतो हन्तानुष्टुभं छन्द आरोह दिशोऽनुविक्रमस्व ।। – मै २.७.८, काठ १६.८ अतिच्छन्दा वै सर्वाणि छन्दाꣳसि – तैसं ५.३.८.३, तै १.७.९.६, जै २.४८ वर्ष्म वा एषा छन्दसां यदतिछन्दाः – तैसं ५.२.१.५, ३.८.३, काठ २४.५, क ३७.६, तै १.७.९.६ सर्वाणि वै छन्दाꣳसि अतिछन्दाः – मै ३.७.४., ४.८.५, तां ४.९.२ अनुष्टुप् छन्दसाम् (एतमादित्यमानशे) – तां ४.६.७ अनुष्टुप् छन्दसां प्रतिष्ठा तैसं २.५.१०.३ अनुष्टुप् छन्दस्तदायुर्मित्रो देवता – मै २.१३.१४, काठ ३९.४ वागनुष्टभोत्तमं जुहोति वाग्वा अनुष्टुब् वाचमेवोत्तमां दधाति तस्माद्वाक् प्राणानामुत्तमा विहितं वदत्यनुष्टुब् वै सर्वाणि च्छन्दाँसि पशवश्छन्दाँस्यन्नं पशवः पशूनेवान्नाद्यमवरुन्द्धे-- काठ १९.१०, क ३०.८, तैसं ५.१.५.२, मै ३.१.४, ३.२, ४.५.१, काठ १९.३, क ३०.१ मरुत्वतीयशस्त्रम्-- आ त्वा रथम् यथा ऊतय इत्य् अनुष्टुभा मरुत्वतीयम् प्रतिपद्यते । पवमान उक्थम् वा एतद् यन् मरुत्वतीयम् । अनुष्टुप् सोमस्य छन्दः । उक्तम् पद विग्रहणस्य ब्राह्मणम् । गायत्रीः शंसति । प्राणो वै गायत्र्यः । प्राणम् एव तद् आत्मन् धत्ते ।– कौ १५.२, वैश्वदेवशस्त्रम्-- तत् सवितुर् वृणीमह इत्य् अनुष्टुभा वैश्वदेवम् प्रतिपद्यते । पवमान उक्थम् वा एतद् यद् वैश्वदेवम् । अनुष्टुप् सोमस्य छन्दः ।-कौ १६.३ अन्तो वा अनुष्टुप् छन्दसाम् – तां १९.१२.८ अन्तो वा अनुष्टुप् – मै १.१०.८, काठ ३६.१२ प्रजापतिर्वा अभीवर्तः प्रजाश्छन्दांसि – जै २.३८० कनीयाꣳसि (छन्दांसि) देवेष्वासन्, ज्यायाꣳस्यसुरेषु – मै ४.७.५ छन्दोभिर्वै देवा असुरानभ्यभवन् – जै १.३४२ छन्दाꣳसि वा ऋत्विजः- मै ३.९.८, काठ २६.९ छन्दांसि वै सर्वे कामाः – जै १.३३२ छन्दांसि केतवः – जै ३.५८ एते ह खलु वै छन्दसां वीर्यतमे यद् विराट् च गायत्री च – जै २.३३५ गायत्रीं सर्वाणि छन्दांस्यपियन्ति – जै १.२९० राजसूयम् -- समिधमातिष्ठ गायत्री त्वा छन्दसावतु त्रिवृत्स्तोमो रथन्तरँ सामाग्निर्देवता ब्रह्म द्रविणमुग्रामातिष्ठ त्रिष्टुप्त्वा छन्दसावतु पञ्चदशस्स्तोमो बृहत् सामेन्द्रो देवता क्षत्रं द्रविणं प्राचीमातिष्ठ जगती त्वा छन्दसावतु सप्तदशस्स्तोमो वैरूपँ साम मरुतो देवता विड् द्रविणमुदीचीमातिष्ठानुष्टुप् त्वा छन्दसावत्वेकविंशस्स्तोमो वैराजँ साम मित्रावरुणौ देवता पुष्टं द्रविणमूर्वाष्मातिष्ठ पङ्क्तिस्त्वा छन्दसावतु ॥ त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ शाक्वररैवते सामनी बृहस्पतिर्देवता वर्चो द्रविणँ – काठ १५.७ गायत्री वै छन्दसामयातयाम्नी – जै ३.३०५ छन्दाꣳसि वा अमुष्माल्लोकात् सोममाहरन्, गायत्री श्येनो भूत्वा – काठ २४.१ मुखं गायत्री छन्दसाम् – जै २.१३ पृष्ठस्तोत्रीय छन्दोविशेषविधानं -- यातयामान्यन्यानि छन्दाꣳस्ययातयामा गायत्री। तां १३.१०.१( तु. जै ३.१५४) छन्दाꣳसि वै ग्नाः- तैसं ५.१.७.२, काठ १९.७, क ३०.५, माश ६.५.४.७ छन्दाꣳसि वै ग्नाः देवीर्विश्वदेव्यवतीः – मै ३.१.८ छन्दाꣳसि वै ग्नाश्छन्दोभिर्हि स्वर्गं लोकं गच्छन्ति – माश १.३.१.१६, ५.२.५.१७ एता एव निर् वपेद् ग्रामकामश् छन्दाꣳसि वै देविकाश् छन्दाꣳसीव खलु वै ग्रामश् छन्दोभिर् एवास्मै ग्रामम् अव रुन्द्धे मध्यतो धातारं करोति मध्यत एवैनं ग्रामस्य दधाति । – तैसं ३.४.९.२ तेभ्य (छन्दोभ्यो देवाः) एतच्चतुर्गृहीतं प्रायच्छन्ननुवाक्यायै, याज्यायै, देवतायै, वषट्काराय। - काठ १८.१९ छन्दाꣳसि देवेभ्यो ऽपाक्रामन् न वो ऽभागानि हव्यं वक्ष्याम इति तेभ्य एतच् चतुरवत्तम् अधारयन् पुरोऽनुवाक्यायै याज्यायै देवतायै वषट्काराय यच् चतुरवत्तं जुहोति छन्दाꣳस्य् एव तत् प्रीणाति तान्य् अस्य प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । - तैसं २.६.३.२ अग्निर् देवता गायत्री छन्द उपाꣳशोः पात्रम् असि सोमो देवता त्रिष्टुप् छन्दो ऽन्तर्यामस्य पात्रम् असीन्द्रो देवता जगती छन्द इन्द्रवायुवोः पात्रम् असि बृहस्पतिर् देवतानुष्टुप् छन्दो मित्रावरुणयोः पात्रम् अस्य् अश्विनौ देवता पङ्क्तिश् छन्दो ऽश्विनोः पात्रम् असि सूर्यो देवता बृहती छन्दः शुक्रस्य पात्रम् असि चन्द्रमा देवता सतोबृहती छन्दो मन्थिनः पात्रम् असि विश्वे देवा देवतोष्णिहा छन्द आग्रयणस्य पात्रम् असीन्द्रो देवता ककुच् छन्द उक्थानाम् पात्रम् असि पृथिवी देवता विराट् छन्दो ध्रुवस्य पात्रम् असि ॥ - तैसं ३.१.६.२ १. अतिच्छन्दा वै छदिश्छन्दः सा हि सर्वाणि छन्दाꣳसि छादयति । माश ८,२, ४,५ । २. अन्तरिक्षं वै छदिश्छन्दः । माश ८, ५,२, ६ । ३. सिंहो वयश्छदिश्छन्दः । तैसं ४, ३, ५, २; मै २, ८, २ ।
छन्दस्य, स्या १. अन्नं वा एकञ्छन्दस्यमन्नꣳ ह्येकं भूतेभ्यश्छदयति । मं २, ६, १३ । २ पशवः (+ वै [तैसं., क.J) छन्दस्याः (इष्टकाः)। तैसं ५, २, १०, २; काठ २०, ९; क ३१, ११ ॥ |
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