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Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.)

Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.)

Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. )

Chaakshusha - Chaamundaa  (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.)

Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.)

Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. )

Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) 

Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.)

Chuudaalaa - Chori  ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.)

Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.)

Chhaaga - Jataa  (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.)

Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.)

Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.)

Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) 

Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.)

Jayadhwaja - Jara  ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. )  

Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.)

 

 

The story of Jaya – Vijaya

- Radha Gupta

 

     The story is related to the purification of mind and intellect polluted from ego. It shows that the human consciousness/Jeevaatmaa is directly related to the super consciousness/aatmaa. This state is called self – realization . But this direct relation between the human and super consciousness breaks when the mind and intellect become polluted with ego. Human consciousness never wishes this broken state because the only and ultimate source of power, knowledge, peace and bliss is the super consciousness. For this reason, human consciousness always tries to avoid that impurity residing in the form of ego in mind and intellect. For this purpose, human consciousness adopts two ways. First, it inspires the human being opting for knowledge. Through knowledge, one becomes capable in seeing his hidden ego in the internal space of mind and intellect. Once the ego is known, it starts decreasing day by day. But if the human being is not capable to attain knowledge and does not see his ego through this knowledge, then the human consciousness adopts the second path of purification of ego. This second path is a long journey full of desire, anger, greediness and jealousy etc. The story of Jaya and Vijay belongs to this second path.

            Human consciousness is always full of mercy and therefore is determined for the development of human being. As a process, first of all, mind and intellect of a human being become impure from desire or anger or greed. He engages in such deeds which are immoral . This not only drowns him in sorrows, troubles or difficulties but invites these for others also. As a result, some kind hearted people try their best to make him understand and to prevent him from evil but the egoistic person ignores all that and becomes more egoistic. When he hears from others about God – the supreme power, he laughs but fears internally. As egoistic person never bears the superiority of others, he continuously starts thinking  about supreme power only. This continuous thinking of supreme power brings him fortunes. The super consciousness descends in the person according to the need. This descending or alightment destroys all impurity including ego and thus mind and intellect become pure. With the help of this purity, human consciousness again enters in super consciousness.

            Here Sanaka etc.  are the symbol of human consciousness. Jay and Vijaya are the symbols of mind and intellect. Shri Hari symbolizes Atmaa  - the super consciousness and an evil birth symbolizes the impurities like anger, greed or desire etc.

First published : 10-10-2008 AD(Aashwin shukla ekaadashee, Vikram samvat 2065)

 

जय - विजय की कथा का रहस्यार्थ

- राधा गुप्ता

श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत अध्याय १५ एवं १६ में 'जय - विजय को सनकादि का शाप तथा जय - विजय का वैकुण्ठ से पतन' नामक कथा वर्णित है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -

          ब्रह्मा के मानस पुत्र सनकादि स्पृहा से मुक्त होकर समस्त लोकों में विचरण किया करते थे । एक बार वे समस्त लोकों के शिरोभाग में स्थित वैकुण्ठ धाम में जा पहुंचे, जहां आदि नारायण शुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण कर हर समय विराजमान रहते हैं तथा जिसमें नि:श्रेयस नाम का एक वन भी है । भगवद् दर्शन की लालसा से उस वैकुण्ठधाम की छह ड्योढियों को पार करके जब वे सातवीं पर पहुंचे, तब उन्हें दो देवश्रेष्ठ द्वारपालों ने बैंत अडाकर भीतर प्रवेश करने से रोक दिया, जहां श्रीहरि लक्ष्मी जी के साथ विराजमान थे । सनकादि समदृष्टि से युक्त, तत्त्वज्ञ, योगनिष्ठ, पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र, ब्रह्मानन्द में निमग्न, पांच वर्ष के बालकों जैसे प्रतीत होने वाले तथा दिगम्बर वृत्ति से युक्त थे, अतः द्वारपालों के द्वारा किए गए दुव्र्यवहार के योग्य नहीं थे । हरि दर्शन में विघ्न पडने के कारण सनकादि के नेत्र क्रोध से कुछ - कुछ लाल हो गए और उन्होंने वैकुण्ठनाथ के उन दोनों पार्षदों के कल्याण हेतु उन्हें वैकुण्ठलोक से निकल कर पापमय योनियों - काम, क्रोध, लोभ में चले जाने का आदेश दे दिया ।

          सनकादि के कठोर वचन सुनकर श्रीहरि के दोनों पार्षदों ने अपने दण्ड को 'स्वीकार' कर लिया परन्तु सनकादि से प्रार्थना की कि वे ऐसी कृपा करे जिससे अधमाधम योनियों में जाने पर भी उन्हें भगवत्स्मृति को नष्ट करने वाला मोह प्राप्त न हो । सनकादि तथा द्वारपालों के मध्य घटित हुए इस घटनाचक्र के विषय में जानकर श्रीहरि लक्ष्मी जी के सहित स्वयं ही अपने भक्त सनकादि के नेत्रगोचर हुए । सनकादि ने भगवान् की स्तुति की । भगवान् ने अपने पार्षदों जय - विजय के अपराध हेतु - जो एक बार पहले लक्ष्मी जी को भी प्रवेश करने से रोक चुके थे - स्वयं क्षमाप्रार्थी होकर सनकादि से प्रार्थना की कि वे इन अनुचरों पर यह कृपा करें कि इनका निर्वासन काल शीघ्र समाप्त हो जाए और वे अपराध के अनुरूप अधम गति भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आएं । श्रीहरि की इस विनम्रता से अभिभूत सनकादि ने श्रीहरि की इच्छा को शिरोधार्य कर उनकी परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर उनसे आज्ञा लेकर उनके ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए वहां से लौट आए ।

          श्रीहरि ने अपने अनुचरों जय - विजय को विप्र तिरस्कार के कारण अधम योनि में जाने का आदेश दिया और क्रोधाकार - वृत्ति जनित एकाग्रता से शीघ्र ही पापमुक्त होकर वापस लौट आने के प्रति आश्वस्त भी किया । श्रीहरि ने स्वधाम में प्रवेश किया और दोनों द्वारपाल देवश्रेष्ठ जय - विजय ब्राह्मण शाप के कारण वैकुण्ठ लोक से नीचे गिर गए ।

कथा का तात्पर्य

प्रस्तुत कथा पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक है और मनुष्य के मन - बुद्धि में विद्यमान अहंकार के परिमार्जन से सम्बन्धित है ।

          प्रत्येक मनुष्य आत्म चैतन्य (आत्मा) तथा शरीर का एक जोड है । आत्म चैतन्य जब शरीर में क्रियाशील होता है, तब जीव चैतन्य कहलाता है । आत्म चैतन्य तथा जीव चैतन्य में अबाधित सम्बन्ध है अर्थात् जीव चैतन्य आत्म चैतन्य के निकट अप्रतिहत गति से गमन - आगमन करता रहता है । इस शुद्ध स्थिति को शास्त्रों की भाषा में स्व - स्वरूप में अवस्थिति अथवा आत्म - साक्षात्कार प्रभृति विभिन्न नामों से अभिहित किया जाता है । परन्तु यदि जीव चेतना की इस अप्रतिहत गति में बाधा उपस्थित होती है, तब स्व - स्वरूप में अवस्थिति खण्डित हो जाती है और उसी समय से समस्या का प्रारम्भ होता है क्योंकि आत्म - चैतन्य ही समस्त शक्ति, ज्ञान, शान्ति तथा आनन्द का मूल स्रोत है । उससे सम्बन्ध विच्छेद होने पर मनुष्य को प्राप्त होने वाली शक्ति, ज्ञान, शान्ति तथा आनन्द का भी सम्बन्ध - विच्छेद हो जाता है । अतः जीव चेतना कभी नहीं चाहती कि आत्म चैतन्य के निकट उसकी अप्रतिहत गति में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित हो । ऐसी स्थिति में मनुष्य की जीव चेतना बाधा उपस्थित करने वाले तत्त्वों में जो बाधक तत्त्व विद्यमान है, उसके परिमार्जन के लिए पूर्ण प्रयत्नशील होती है । जीव - चेतना द्वारा बाधक तत्त्व के परिमार्जन की प्रक्रिया भी अत्यन्त अनूठी है । इस प्रक्रिया को निम्नांकित बिन्दुओं के रूप में कथा में प्रकट किया गया है -

१- जीव चेतना की अबाधित गति में बाधा उपस्थित करने वाला तत्त्व है - मन - बुद्धि में रहने वाला अहंकार । मन - बुद्धि नामक दोनों तत्त्व जब अपनी शुद्ध अवस्था में होते हैं, तब उत्तम सेवकों की भांति आत्म चैतन्य की आज्ञा को शिरोधार्य करके उनकी आज्ञा का पालन मात्र करते हैं । परन्तु अहंकार से अशुद्ध होने पर ये विपरीत आचरण करने वाले होने से दण्ड के पात्र बन जाते हैं ।

२- अहंकार से युक्त मन - बुद्धि की शुद्धि के दो ही उपाय हैं । जीव चेतना मनुष्य को पहला अवसर इस रूप में प्रदान करती है कि मनुष्य प्रयत्नपूर्वक गुणों के संवर्धन द्वारा अपनी मनोगत और बुद्धिगत चेतना को निम्न धरातल से उठाकर धीरे - धीरे उच्च धरातल पर स्थापित करे । फिर अन्तर्मुखी होकर अन्तर्दर्शन करे । अन्त: के दर्शन से अपने भीतर विद्यमान अहंकार का दर्शन होने पर वह अहंकार शनैः- शनैः समाप्त होने लगता है । अहंकार के परिमार्जन के लिए यह साधना का एक प्रकार है । परन्तु यदि मनुष्य इस साधना - पथ पर चलने में समर्थ नहीं होता अर्थात् अपने भीतर विद्यमान अहं का दर्शन नहीं कर पाता, तब जीव चेतना दूसरे उपाय का आश्रय ग्रहण करती है । इसी दूसरे उपाय का निदर्शन प्रस्तुत कथा के माध्यम से कराया गया है ।

३- जीव चेतना अनुग्रहशीला है । वह मन - बुद्धि को अहं से मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम उसे काम - क्रोध - लोभ आदि विकारों में से किसी विशिष्ट विकार से युक्त बनाती है अर्थात् मनुष्य के मन - बुद्धि षड्- विकारों में से किसी भी एक विकार से युक्त हो जाते हैं ।

४- विशिष्ट विकार से युक्त होकर मनुष्य के मन - बुद्धि तत्सम्बन्धित क्षेत्र में अत्यन्त मनमाना वेद - विरुद्ध आचरण करते हैं । इस वेद -विरुद्ध आचरण से वे अप्रत्यक्ष रूप से अपने लिए विघ्नों को ही आमन्त्रित करते हैं ।

५- अहंकार युक्त होकर मनमाना विरुद्ध आचरण करने से मनुष्य की अन्त:शक्तियां भी पीडित होती हैं और बाह्य शक्तियां भी । इसलिए शुभेच्छुक लोग वेद - विरुद्ध आचरण से निवृत्त होने के लिए उसे समझाने का प्रयत्न करते हैं परन्तु अहंकार युक्त मन - बुद्धि पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता, प्रत्युत वह स्वयं को अति सामर्थ्यशाली समझकर अधिक प्रबल अहंकार से युक्त हो जाता है ।

६- अब शुभेच्छुक शक्तियां स्वयं को असमर्थ अनुभव करते हुए उस अभिमानी से कहने लगती हैं कि सर्वशक्तिमान् सत्ता ही तुम्हारा सामना तथा कल्याण करने में समर्थ है ।

७- यह सुनते हुए प्रबल अहंकार युक्त मन - बुद्धि वाला मनुष्य बाह्य रूप से तो सर्वशक्तिमान् सत्ता को तुच्छ कहता रहता है, परन्तु भीतर ही भीतर वह अपनी विरोधी उस सर्वशक्तिमान् सत्ता को भयवश अथवा क्रोधवश अथवा द्वेषवश ही याद करने लगता है ।

८- इस प्रकार प्रबल अहंकार के वशीभूत हुआ वह मनुष्य प्रतिक्षण भय, क्रोध अथवा द्वेषवश सर्वशक्तिमान् सत्ता से जुडा रहता है । प्रतिक्षण मन - बुद्धि की यह एकाग्र स्थिति ही उसे योगनिष्ठ बना देती है ।

९- सर्वशक्तिमान् सत्ता के प्रति मन - बुद्धि की यह एकाग्र स्थिति भले ही भय, क्रोध अथवा द्वेषवश बनी हो, परन्तु उस मनुष्य में विशिष्ट चैतन्य का अवतरण करा देती है ।

१०- इस अवतरित हुए विशिष्ट चैतन्य के प्रभाव से मन - बुद्धि में निहित सारा अहंकार खो जाता है और मन - बुद्धि पुनः शुद्ध होकर पूर्व की भांति आत्म - चैतन्य के सेवक पद पर आरूढ हो जाते हैं ।

११ - इस प्रकार कथा इंगित करती है कि अहंकार से मुक्त होकर आत्म साक्षात्कार के योग्य होने के लिए दु:खों, विघ्नों की लम्बी शृङ्खला से निकलना ही होगा । तभी चेतना रूपी कमल खिलता है ।

          अहंकार युक्त मन - बुद्धि के उदाहरण के रूप में भागवतकार ने हिरण्याक्ष - हिरण्यकशिपु, रावण - कुम्भकर्ण तथा शिशुपाल - दन्तवक्त्र के चरित्रों को प्रस्तुत किया है ।

कथा की प्रतीकात्मकता

अब हम कथा के प्रतीकों पर ध्यान दें ।

१- सनकादि - अनुग्रहशील जीव चेतना, जो मन - बुद्धि को अहंकार मुक्त करने का उपाय करती है - कहानी में सनकादि नाम से अभिहित की गई है । सनकादि का अर्थ है - सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् नामक चार कुमार । इन चारो शब्दों में 'सन' शब्द के साथ एक ही अर्थ वाले चार भिन्न - भिन्न प्रत्ययों का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है - सदा, नित्य, शाश्वत स्वरूप । शाश्वत तो केवल चैतन्य ही है, अतः सनकादि शब्द चैतन्य वाचक हुआ । चूंकि यह चैतन्य मनुष्य शरीर में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा प्राज्ञ(तुरीय) नामक चार अवस्थाओं में विद्यमान रहता है, इसलिए जीव चैतन्य कहलाता है । चार अवस्थाओं में विद्यमान रहने के कारण इस जीव चैतन्य को सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् नामक एक ही अर्थ वाले चार शब्दों से संकेतित किया गया है ।

          यह जीव चैतन्य(चेतना) अत्यन्त शुद्ध अर्थात् किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित होता है, इसीलिए कहानी में सनकादि को 'दिगम्बर वृत्ति' वाला, नित्य नूतन होने के कारण 'कुमार' अवस्था से युक्त, आत्म - चैतन्य से एकाकारता की सामर्थ्य के कारण 'तत्त्वज्ञ', 'योगनिष्ठ', 'समद्रष्टा', ब्रह्मचर्या से युक्त होने के कारण 'ब्राह्मण' तथा ब्रह्मानन्द में निमग्न प्रभृति विभिन्न शब्दों से इंगित किया गया है ।

          सनकादि को ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा गया है । ब्रह्म शब्द बृंह धातु से बना है , जिसका अर्थ है - बढना । ब्रह्म(परम सत्ता) जब बढने के धर्म से युक्त होता है, तब ब्रह्मा कहलाता है । इस आधार पर आत्म - चैतन्य का जीव चैतन्य के रूप में प्रस्फुरण उसका बृंहण ही कहा जाएगा । 'पुत्र' शब्द पौराणिक साहित्य में गुण के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इस आधार पर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा प्राज्ञ नामक चार अवस्थाओं से युक्त होना जीव चैतन्य का अपना विशिष्ट गुण है । अतः सनकादि को ब्रह्मा का मानस पुत्र कहना युक्तिसंगत ही है ।

२- जय - विजय - कथा के दूसरे प्रमुख पात्र हैं - जय - विजय । प्रस्तुत कथा में जय - विजय का वर्णन दो स्वरूपों में हुआ है । प्रथम स्वरूप में जय - विजय काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर नामक षड्- विकारों तथा अहंकार से रहित शुद्ध मन - बुद्धि के प्रतीक हैं । उपर्युक्त विकारों पर विजय प्राप्त रहने के कारण ही उन्हें जय - विजय नाम से सम्बोधित किया गया प्रतीत होता है । परन्तु दूसरे स्वरूप में उन्हें अहंकार से युक्त अशुद्ध मन - बुद्धि के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।

          प्रथम स्वरूप - प्रथम स्वरूप में जय - विजय को वैकुण्ठ लोक के द्वारपाल तथा भगवान् के पार्षद कहा गया है । द्वारपाल का कार्य है - केवल वांछित व्यक्ति अथवा वस्तु को ही घर के भीतर प्रवेश करने की अनुमति देना तथा अवांछित व्यक्ति अथवा वस्तु को बाहर ही रोक देना । शुद्ध मन - बुद्धि को द्वारपाल कहकर उनके इसी कार्य की ओर इंगित किया गया है । शुद्ध मन - बुद्धि भी बाह्य जगत् से वांछित भाव अथवा विचार को ग्रहण कर लेते हैं तथा अवांछित को बाहर ही छोड देते हैं । पार्षद का अर्थ है - परिषद् या सभा का अनुचर अथवा सेवक । जिस प्रकार सभा का सेवक सभापति की आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाला होता है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर रूपी परिषद् या सभा का सभापति होता है - आत्मा(आत्म चैतन्य ) तथा सेवक होते हैं - मन - बुद्धि । आत्मा रूपी स्वामी के निर्देशन में मन - बुद्धि रूपी सेवक जब कार्य करते हैं, तब मनुष्य का जीवन सुचारु रूप से उन्नति की ओर अग्रसर रहता है । परन्तु इस वांछित, संतुलित स्थिति के विपरीत जब आत्म - चैतन्य अर्थात् स्वामी अनुपस्थित हो जाता है( आत्म - विस्मृति में आत्मा अनुपस्थित ही रहता है ) और सेवक रूपी मन - बुद्धि स्वामी की भांति व्यवहार करने लगते हैं, तब मनुष्य जीवन की उन्नति संकट में पड जाती है । अथवा मन - बुद्धि रूपी सेवक इतने अहंकारी हो जाते हैं कि आत्मा रूपी स्वामी के उपस्थित होते हुए भी उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते , तब भी जीवन - उन्नयन बाधित हो जाता है । प्रस्तुत कथा में जय - विजय रूपी मन - बुद्धि को भगवान् का पार्षद कहकर यह इंगित किया गया है कि पार्षद रूप में वे अहंकार तथा षड्-विकारों से रहित हैं, इसलिए स्वामी की आज्ञा का सेवक की भांति पालन करते हैं ।

          द्वितीय स्वरूप - द्वितीय स्वरूप में जय - विजय रूपी मन - बुद्धि को कामादि षड्- विकारों से रहित होते हुए भी अहंकार नामक विकार से युक्त चित्रित किया गया है । जय - विजय द्वारा बैंत अडाकर सनकादि को वैकुण्ठनाथ(आत्म - चैतन्य) के समीप जाने से रोकना उनके अहंकार को प्रदर्शित करता है । साथ ही उनके इस अहंकार को कथा में साक्षात् लक्ष्मी जी को रोकने के कथन द्वारा भी संकेतित किया गया है । जय - विजय की सम्पूर्ण कथा ही मन - बुद्धि में निहित इस अहंकार के परिमार्जन पर केन्द्रित है ।

          जय - विजय को 'देवश्रेष्ठ' भी कहा गया है । देवश्रेष्ठ शब्द से जय - विजय का मन - बुद्धि का प्रतीक होना ही सिद्ध होता है क्योंकि मनुष्य के भीतर ज्ञानेन्द्रियों - कर्मेन्द्रियों के रूप में जितनी शक्तियां काम कर रही हैं, वे देव कहलाती हैं तथा उन शक्तियों में मन - बुद्धि के श्रेष्ठ होने से उन्हें देवश्रेष्ठ कहना उचित ही है ।

          ३- कथा में कहा गया है कि सनकादि समस्त लोकों के शिरोभाग में स्थित वैकुण्ठधाम में जा पहुंचे जहां आदि - नारायण प्रत्येक समय विराजमान रहते हैं तथा जहां नि:श्रेयस् नाम का वन भी है ।     समस्त लोकों के शिरोभाग में स्थित वैकुण्ठलोक समस्त योनियों में श्रेष्ठ मनुष्य योनि को इंगित करता है । यों तो आत्म - चैतन्य(आत्मा) कण - कण में विद्यमान है, परन्तु मनुष्य योनि में वह आत्म - चैतन्य अपनी अष्टधा प्रकृति(स्थूल - सूक्ष्म शरीर) के माध्यम से चलना - फिरना, सोचना - विचारना आदि सहस्रों क्रियाओं के रूप में हर समय अभिव्यक्त होता है, इसे ही कहानी में आदि नारायण का हर समय विराजमान होना कहा गया है । नि:श्रेयस् नामक वन का तात्पर्य है - मनुष्य योनि में ही मोक्ष की सर्वाधिक अथवा एकमात्र सम्भावना का विद्यमान होना ।

          ४- कथा में कहा गया है कि सनकादि वैकुण्ठलोक की छह ड~योढियां पार करके जब सातवीं पर पहुंचे, तब दो देवश्रेष्ठ द्वारपालों ने बैंत अडाकर उन्हें रोक दिया । अतः हरिदर्शन में विघ्न पडने के कारण कुछ - कुछ क्रोध युक्त हुए सनकादि ने द्वारपालों के कल्याणार्थ उन्हें पापयोनियों में जाने का आदेश दिया ।

          छह ड्योढियों का अर्थ है - मन - बुद्धि में रहने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर नामक ६ विकार । सनकादि द्वारा ६ ड्योढियां पार करने का अर्थ है - जय - विजय रूपी मन - बुद्धि इन छहों विकारों से मुक्त थे, इसलिए सनकादि रूपी जीव चेतना इनसे बाधित नहीं हुई । सातवीं ड्योढी का अर्थ है - मन - बुद्धि में निहित अहंकार । यह अहंकार ही सनकादि रूपी जीव चेतना के हरि रूपी आत्म - चैतन्य से मिलन में बाधा उपस्थित करता है । पापयोनि में जाने का अर्थ है - अहंकार के परिमार्जन हेतु मन - बुद्धि का काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से युक्त होना ।

          ५- कथा में कहा गया है कि जय - विजय ने सनकादि से प्रार्थना की कि अधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत्स्मृति बनी रहे - ऐसी कृपा कीजिए ।

          यहां 'भगवत्स्मृति' शब्द महत्त्वपूर्ण है । मन - बुद्धि के अहंकार का परिमार्जन करने के लिए सनकादि रूपी जीव चेतना जिस अद्भुत तथा विशिष्ट उपाय का आश्रय लेती है, उसमें अहंकार युक्त मन - बुद्धि भगवत्स्मृति द्वारा ही भगवान् से जुड पाते हैं । यह बात अलग है कि यह भगवत्स्मृति प्रेमवश नहीं, अपितु भय, क्रोध अथवा द्वेषवश ही होती है । इस भगवत्स्मृति से ही अहंकार युक्त मन - बुद्धि की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है, अन्यथा उनके कल्याण का कोई उपाय ही नहीं है ।

          ६- कथा में कहा गया है कि स्वयं श्रीहरि ने भी सनकादि से प्रार्थना की कि उनके अनुचरों - जय - विजय का निर्वासन काल शीघ्र समाप्त हो जाए तथा वे शीघ्र पापमुक्त होकर उनके पास आ जाएं ।

          मनुष्य का आत्मा भी चाहता है कि मन - बुद्धि अहंकार आदि से मुक्त होकर पूर्णतः शुद्ध हों क्योंकि मन - बुद्धि की अशुद्धता के कारण आत्म - चैतन्य अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त नहीं हो पाता । मनुष्य के भीतर विद्यमान आत्म चैतन्य अद्भुत क्षमता वाला है । उस क्षमता का सम्यक् प्रकटीकरण उत्तम, शुद्ध मन - बुद्धि के माध्यम से ही सम्भव है ।

          इस प्रकार प्रस्तुत कथा के माध्यम से भागवतकार ने शुद्ध मन - बुद्धि की पार्षदरूपता, अहंकार के उद्भव से उसकी विकृतता तथा आत्म साक्षात्कार में उसकी बाधकता, जीव चेतना द्वारा उसका कल्याण सम्पादन तथा अहंकार से मुक्त होने पर आत्म चैतन्य द्वारा पुनः पार्षदरूपता की प्राप्ति का आश्वासन आदि विषयों को सुन्दरता से एक ही कथा में निबद्ध कर दिया है ।

First published : 10-10-2008 AD(Aashwin shukla ekaadashee, Vikram samvat 2065)