Chandramaa - Chandrashekhara ( words like Chandramaa / moon, Chandrarekhaa etc.) Chandrashree - Champaka (Chandrasena, Chandrahaasa, Chandraangada, Chandrikaa, Chapahaani, Chapala, Chamasa, Champaka etc.) Champaka - Chala (Champaa, Chara / variable, Charaka, Charana / feet, Charchikaa, Charma / skin, Charu, Chala / unstable etc. ) Chaakshusha - Chaamundaa (Chaakshusha, Chaanakya, Chaanuura, Chaandaala, Chaaturmaasa, Chaandraayana, Chaamara, Chaamundaa etc.) Chaamundaa - Chitta ( Chaaru, Chaarudeshna, Chikshura, Chit, Chiti, Chitta etc.) Chitta - Chitraratha ( Chitta, Chitra / picture, Chitrakuuta, Chitragupta, Chitraratha etc. ) Chitraratha - Chitraangadaa ( Chitralekhaa, Chitrasena, Chitraa, Chitraangada etc. ) Chitraayudha - Chuudaalaa (Chintaa / worry, Chintaamani, Chiranjeeva / long-living, Chihna / signs, Chuudamani, Chuudaalaa etc.) Chuudaalaa - Chori ( Chuuli, Chedi, Chaitanya, Chaitra, Chaitraratha, Chora / thief etc.) Chori - Chhandoga( Chola, Chyavana / seepage, Chhatra, Chhanda / meter, Chhandoga etc.) Chhaaga - Jataa (Chhaaga / goat, Chhaayaa / shadow, Chhidra / hole, Jagata / world, Jagati, Jataa / hair-lock etc.) Jataa - Janaka ( Jataayu, Jathara / stomach, Jada, Jatu, Janaka etc.) Janaka - Janmaashtami (Janapada / district, Janamejaya, Janaardana, Jantu / creature, Janma / birth, Janmaashtami etc.) Janmaashtami - Jambu (Japa / recitation, Jamadagni, Jambuka, Jambu etc. ) Jambu - Jayadratha ( Jambha, Jaya / victory, Jayadratha etc.) Jayadhwaja - Jara ( Jayadhwaja, Jayanta, Jayanti, Jayaa, Jara / decay etc. ) Jara - Jaleshwara ( Jaratkaaru, Jaraa / old age, Jaraasandha, Jala / water etc.) |
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छन्द छन्दों का सामान्य परिचय और उनका भौतिक विज्ञान से सम्बन्ध : अब छन्दों पर आते हैं । कहा गया है कि छन्द छादन करके पाप कर्मों से बचाते हैं, इसलिए इन्हें छन्द कहा जाता है । इस तथ्य की विज्ञान के आधार पर भी व्याख्या कर सकते हैं । जो भी कर्म हो रहा है, उससे अव्यवस्था में वृद्धि हो रही है, एण्ट्रांपी में वृद्धि हो रही है । इसे ही पाप कह सकते हैं । कहा गया है कि यदि छन्दों का आश्रय लिया जाए तो अव्यवस्था की इस वृद्धि से, पाप से बचा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.३७ आदि में रस को छन्द कहा गया है ( इसके विपरीत, कौशीतकि ब्राह्मण ७.९.११ व ८.१७.२ में प्राण को छन्द कहा गया है । पुराणों में विराज गौ से विभिन्न प्रकार के दुग्धों के दोहन के संदर्भ में छन्दों को पात्र कहा गया है ) । यदि छन्द रस हैं तो एक रस में से दूसरे रस का सम्भरण करना एण्ट्रांपी को कम करना कहा जा सकता है ।
छन्दों को समझने के लिए विभिन्न वैदिक व पौराणिक संदर्भ यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले मेरी बारी आएगी, पहले मेरी, क्योंकि सभी संदर्भ एक से एक बढकर महत्त्वपूर्ण हैं और एक संदर्भ को समझने के लिए दूसरे संदर्भ को समझना आवश्यक है । छन्दों को समझने के क्रम का आरम्भ वैदिक यज्ञों में ३ प्रकार की अग्नियों के लिए बनाए गए ३ खरों से करते हैं क्योंकि लगता है कि आधुनिक विज्ञान में जो तथ्य एण्ट्रांपी में वृद्धि या ह्रास के माध्यम से कहे जा रहे हैं, उनकी अभिव्यक्ति प्राचीन काल में यज्ञों के माध्यम से हुई है । जैसा कि चित्र १ में दिखाया गया है, सबसे पूर्व दिशा में आहवनीय अग्नि का स्थान होता है, उसके पश्चिम में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का और उसके भी पश्चिम में गार्हपत्य अग्नि का स्थान होता है, वैसे ही जैसे देह में मुख, हृदय और उदर होते हैं । दक्षिणाग्नि का अधिपति नैषध नल कहा गया है और गार्हपत्य अग्नि का यम । यदि दक्षिणाग्नि को समझना हो तो पुराणों में प्रकट होने वाली नल - दमयन्ती के पूरे आख्यान को ध्यान में रखना होगा । इसी प्रकार यदि गार्हपत्य अग्नि को समझना हो तो यम से सम्बन्धित सभी आख्यानों को ध्यान में रखना होगा । आहवनीय अग्नि देवों की अग्नि है । आहवनीय अग्नि का गायत्री छन्द है, दक्षिणाग्नि का त्रिष्टुप् और गार्हपत्य का जगती । नल और यम के आख्यानों के कारण इन छन्दों को भौतिक विज्ञान के तापगतिकी के नियमों के साथ जोडना सम्भव हो जाता है । डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने अपने प्रपत्र में यह स्पष्ट किया है कि नल के आख्यान में जिस द्यूत क्रीडा या अक्ष विद्या का वर्णन आता है, वह वास्तव में वर्तमान काल की भाषा में चांस थ्योरी है, भाग्य का नियम है । कोई सिक्का ऊपर उछाला, वह किस तरफ गिरेगा, यह केवल चांस है, किसी नियम में बद्ध नहीं है । आईन्स्टीन का विचार है कि ईश्वर जुआ नहीं खेलता । उसे अपने सारे जीवन भर एक ऐसा सिद्धान्त विकसित करने की धुन रही जो इस चांस से परे हो और संसार की घटनाओं की व्याख्या करता हो । अब हम पुनः भौतिक विज्ञान में प्रवेश करते हैं । वहां यह एक आधारभूत सिद्धान्त है कि एक तन्त्र की दक्षता १०० प्रतिशत नहीं हो सकती । यहां तन्त्र से तात्पर्य है एक प्रकार की ऊर्जा का दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरण करने वाला । उदाहरण के लिए, आजकल धातु के तार की कुण्डली द्वारा विद्युत ऊर्जा का रूपान्तरण यान्त्रिक ऊर्जा में किया जाता है । भौतिकी के नियम का कहना है कि विद्युत ऊर्जा का रूपान्तरण १०० प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में नहीं किया जा सकता, ऊर्जा के कुछ भाग का क्षय ऊष्मा आदि के रूप में अवश्य होगा । यदि कोई तन्त्र ऊर्जा को १०० प्रतिशत रूपान्तरित कर सके तो यह तापगतिकी के दूसरे नियम के विपरीत जाएगा, ऐसा भौतिक विज्ञान में सिद्ध किया जाता है । भौतिक विज्ञान का यह द्रष्टान्त त्रिष्टुप् व जगती छन्दों को समझने का कार्य सरल कर देता है । त्रिष्टुप् छन्द को दक्षता से सम्बद्ध किया जाता है । तो त्रिष्टुप् छन्द की सबसे निकृष्ट रूप में दक्षता यह है कि इस संसार में प्रकृति का प्रत्येक कार्य चांस के अनुसार, द्यूत के अनुसार चल रहा है । यही नल के आख्यान के संदर्भ में द्यूत विद्या, अक्ष विद्या है । इस दक्षता में अपरिमित रूप से वृद्धि की जा सकती है जो आगे चलकर देखेंगे । जैसा कि ऊपर कहा गया है, भौतिक विज्ञान के अनुसार कोई भी तन्त्र ऊर्जा का रूपान्तरण १०० प्रतिशत करने में समर्थ नहीं है । ऊर्जा का एक भाग अवश्य ही अनावश्यक प्रकार की ऊर्जा में नष्ट हो जाता है । या यह कहा जा सकता है कि ऊर्जा का एक भाग उच्च एण्ट्रांपी की स्थिति को प्राप्त हो जाता है । इस घटना को सरलता से जगती छन्द के साथ सम्बद्ध किया जा सकता है क्योंकि जगती छन्द गार्हपत्य अग्नि से और गार्हपत्य अग्नि यम से सम्बन्धित है । यम सभी प्रकार के पापों से नरक की यातनाओं के माध्यम से मुक्ति दिलाने वाला है । और जगती छन्द ऊर्जा के नष्ट हुए भाग से, उच्च एण्ट्रांपी वाले भाग से सम्बन्धित है, इसका सबसे बडा प्रमाण सोमयाग में मिलता है जहां तृतीय सवन में सोम की प्राप्ति के लिए ऋजीष का उपयोग किया जाता है ।
गायत्री : यह कहा जा सकता है कि एक तन्त्र को, इंजन को आरम्भ करने वाला, उसे निर्देश देने वाला गायत्री छन्द है । तापगतिकी के प्रथम नियम के अनुसार कोई भौतिक वस्तु अपनी गति तब तक नहीं बदलेगी जब तक उस पर बाहरी बल न लगाया जाए । यदि वह स्थिर है तो स्थिर ही रहेगी और यदि गति में है तो गति में ही रहेगी । आभासी रूप में यह नियम अनावश्यक कथन प्रतीत होता है, लेकिन इस आधार पर भौतिक विज्ञान में कारण और कार्य, काज एण्ड इफेक्ट का सिद्धान्त विकसित हुआ है । वैदिक विज्ञान के संदर्भ में भी, जैसा कि इस प्रपत्र में आगे ध्यान दिया जाएगा, गायत्री कारण से और जगती कार्य से सम्बन्धित है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में अनुमति संज्ञक पूर्णिमा व द्यौ को गायत्री कहा गया है । अनुमति का अर्थ यह लिया जा सकता है कि जहां किसी कार्य को करने के लिए एक तन्त्र के कण - कण से अनुमति मिल रही हो । यह उल्लेखनीय है कि शतपथ ब्राह्मण ६.२.१.२४ में प्राण को गायत्री और आत्मा को त्रिष्टुप् कहा गया है जिसकी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । आत्मा के साथ अन्य अङ्ग जुडे होते हैं । यदि ऋतुओं के संदर्भ में गायत्री पर विचार किया जाए तो गायत्री वसन्त ऋतु से सम्बन्धित है और इस कारण गायत्री छन्द का सबसे प्रमुख गुण समित् , समिति का निर्माण करना होना चाहिए । डा. फतहसिंह द्वारा अथर्ववेद के एक सूक्त की व्याख्या के अनुसार एक सभा होती है, एक समिति । सभा में प्रत्येक सदस्य के विचार अलग - अलग हो सकते हैं । लेकिन समिति में सबके एक जैसे । यज्ञ में अग्नि के समिन्धन के लिए समित् का ही प्रयोग किया जाता है । उष्णिक् : शतपथ ब्राह्मण १०.३.२.२ में उष्णिक् को ग्रीवा कहा गया है । लगता है कि यह छन्द शिर रूपी गायत्री की प्रतिष्ठा के लिए ग्रीवा का कार्य करता है । सविता को इस छन्द का देवता कहा गया है । उष्णिक् छन्द के विषय में उष्णिक् शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । माध्यन्दिन संहिता २८.२५ में ''होता यक्षत्तनूनपातमुद्भिदं इति'' यजु में उष्णिहा छन्द को इन्द्रिय से सम्बद्ध किया गया है । इस कथन को भागवत पुराण के इस श्लोक के आधार पर समझा जा सकता है कि-- 'ऊष्माणं इन्द्रियाण्याहुरन्तस्था बलमात्मनः' - भागवत ३.१२.४७ कहने का अभिप्राय यह है कि वर्णमाला में श, ष और स वर्ण ऊष्माण वर्ण कहलाते हैं क्योंकि इनके उच्चारण में ऊष्मा का उत्सर्जन होता है । इसका अनुभव शब्दों की सन्धियों में प्रकट श वर्ण द्वारा किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, क: + चित् = कश्चित् । दूसरी ओर य, र, ल और व वर्ण हैं जिन्हें अन्तस्थ वर्ण कहा जाता है क्योंकि इनके उच्चारण में ऊष्मा का अवशोषण होता है । भागवत पुराण का कथन है कि श , ष आदि के द्वारा उत्पन्न ऊष्मा इन्द्रियों को प्राप्त होती है जिससे वह अपना कार्य करती हैं । दूसरी ओर, जिस ऊष्मा का अवशोषण य, र, ल आदि द्वारा होता है, वह आत्मा को पहुंचती है, आत्मा को बल प्रदान करती है । भागवत पुराण के कथन को और विस्तृत बनाते हुए, यह कहा जा सकता है कि ऊष्माण वर्णों के द्वारा जनित ऊष्मा को उष्णिक् अथवा उष्णिहा छन्द से जोडा जा सकता है, जबकि अन्तस्थ वर्णों में अवशोषित ऊष्मा को त्रिष्टुप् छन्द से सम्बद्ध किया जा सकता है । त्रिष्टुप् : त्रिष्टुप् छन्द क्षत्र, बल, वीर्य, ओज प्राप्ति से, शत्रुओं का प्रतिरोध करने से, इन्द्र से, इन्द्र के वज्र से सम्बन्धित है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.१.१ के अनुसार प्रजनन प्राण त्रिष्टुप् से सम्बन्धित हैं । यह उल्लेख संकेत करते हैं कि मनुष्य में जो ओज, वीर्य उत्पन्न होता है, उसकी चरम परिणति इन्द्र का वज्र बनने में है । पुराणों में देवों के तेजों से देवी के विभिन्न अङ्गों व आयुधों के निर्माण के वर्णन आते हैं । लगता है यह सब वीर्य, बल की चरम परिणति दिखाने के लिए हैं जो त्रिष्टुप् के, दक्षता प्राप्ति के अन्तर्गत रखा गया है । जब अतिरिक्त ऊर्जा या वीर्य या प्रजनन प्राण देवों के आयुधों का रूप धारण कर लेंगे, अन्य शब्दों में अक्ष बन जाएंगे, तभी वह अमृत बन सकेंगे । अन्यथा वह नष्ट हो जाएंगे । भौतिक विज्ञान के उदाहरण में इंजन की दक्षता की प्राप्ति त्रिष्टुप् छन्द के द्वारा की जा सकती है । ओज, बल आदि जितने पुष्ट होंगे, दक्षता उतनी ही अधिक होगी । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में त्रिष्टुप् को उषा व राका पूर्णिमा से सम्बद्ध किया गया है । उषा काल में सोए हुए प्राण जाग जाते हैं । या यह कहा जा सकता है कि जितनी भी ऊर्जा उपलब्ध है, उसका चेतन जगत को सक्रिय करने में उपयोग आरम्भ हो जाता है । चूंकि त्रिष्टुप् छन्द को भरद्वाज ऋषि के साथ सम्बद्ध किया गया है, अतः भरद्वाज की विशेषताओं के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि परामानसिक चेतना, अंग्रेजी भाषा में क्लेयरवाएंस का सर्वोच्च विकास ही त्रिष्टुप् की चरम परिणति है । त्रिष्टुप् छन्द के त्रिष्टुप् नाम का क्या रहस्य हो सकता है, इस संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण १.३२४ का कथन है कि मैं तीन बार स्तुप् हूं , अतः त्रिष्टुप् नाम सार्थक है । ३ शुक्ल, कृष्ण व पुरुष हो सकते हैं । अथवा जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति हो सकते हैं। त्रिष्टुप् छन्द को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए हम स्तोभ शब्द पर ध्यान देते हैं । कहा गया है कि भ आदित्य का तेज रूप है तथा कि चक्षु ही स्तोभ का स्तोभ है ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७० )और रथन्तर साम का गान करते हुए स्तोभ उच्चारण करते हुए इस आदित्य रूपी वत्स को मुख में धारण कर लिया जाता है । यह भ जलाए नहीं, अतः इसको ग्रहण करने के लिए, इसे शान्त करने के लिए विशेष प्रबन्ध करना होता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में मरुत इन्द्र का परिस्तोभन करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.७० में ३ पूर्व स्तोभों और ३ उत्तर स्तोभों प्राण, अपान और व्यान का उल्लेख है । त्रिष्टुप् छन्द को उष्णिक् छन्द के उपरोक्त वर्णन के आधार पर भी समझा जा सकता है । जैसा कि उष्णिक् छन्द के संदर्भ में कहा जा चुका है, संभावना यह है कि जिन अभिक्रियाओं में ऊर्जा का अवशोषण होता हो, वह त्रिष्टुप् छन्द से सम्बद्ध हो सकती हैं । भागवत पुराण में केवल इतना उल्लेख है कि अन्तस्थ वर्ण आत्मा का बल हैं । दूसरी ओर, ब्राह्मण ग्रन्थों में त्रिष्टुप् को बल, वीर्य से सम्बद्ध कहा गया है । लेकिन यह रहस्य ही बना रहता है कि यह बल कौन सा है । यह आत्मा का बल हो सकता है । जगती : यह कहा जा सकता है कि जगती छन्द पुष्टि करने से सम्बन्धित है । गायत्री छन्द की चरम परिणति मुख के रूप में होती है, त्रिष्टुप् की चक्षु में और जगती की श्रोत्र में । चक्षु का कार्य प्रकाश का संवेदन करना है और वैदिक भाषा में सत्य और अनृत की परीक्षा करना है । जगती छन्द की चरम परिणति श्रोत्र में होती है । जगती छन्द पुष्टि से सम्बन्धित है और मांस भी पुष्टि से । लेकिन जगती का एक और पक्ष भी है । श्रोत्र को जगती कहा गया है और जैसा का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, वैदिक साहित्य में श्रोत्र की उत्पत्ति वम्रि या दीमक द्वारा तन्तुओं को काटने से, उनके काटने से उत्पन्न हुए रिक्त स्थान से होती है । दूसरे शब्दों में, वम्रि स्थान विशेष के रस को ऊर्ध्वमुखी बना देती है, उसे न्यून एण्ट्रांपी की स्थिति में ला देती है । अपने शरीर के स्तर पर इस कथन का सत्यापन कैसे हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३९ में अभ्रि द्वारा भूमि का खनन करके मृदा सम्भरण के संदर्भ में जगती के संदर्भ में कहा गया है कि जगती द्वारा हम खनन में समर्थ हों । शतपथ ब्राह्मण ११.५.९.७ में जगती छन्द को विश्वेदेवों से सम्बद्ध किया गया है । विश्वेदेवों को पुराणों में पितरों का देवरूप कहा गया है । और आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में पितरों के बारे में यह कहा जा सकता है कि जिन प्राणों की अव्यवस्था उच्च हो गई है, जिन प्राणों की एण्ट्रांपी में वृद्धि हो गई है, वह पितर कहलाते हैं । आधुनिक विज्ञान में यदि एक तन्त्र के लिए कोई ऊर्जा स्रोत किसी उपयोगी कार्य करने के लिए व्यर्थ हो गया है तो उसे फिर से क्रियाशील बनाने के लिए उसका शोधन करने की आवश्यकता होती है, उसकी एण्ट्रांपी को कम करने की आवश्यकता होती है । यही बात पितरों के संदर्भ में है । प्राणों का कोई भी भाग व्यर्थ नहीं जाने देना है । पितरों को विश्वेदेवों में रूपान्तरित करना है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.१.१ में अवाङ् प्राणों को जगती से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.८ में ३१ छन्दस्य इष्टकाओं की स्थापना के संदर्भ में पुरुष शरीर में श्रोणी को जगती कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि सूर्य द्युलोक में जगती छन्द में गति करता है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में जगती को सिनीवाली अमावास्या व गौ कहा गया है । डा. लक्ष्मीश्वर झा द्वारा दी गई सूचना के अनुसार गौ सूर्य की किरण को कहते हैं और ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ सूर्य की किरणों को ग्रहण करता है, उसे भी गौ कह दिया गया है । इसी कारण से पृथिवी को भी गौ कहा जाता है । यदि ऐसा है तो यह कहा जा सकता है कि जगती छन्द की स्थिति में एण्ट्रांपी में कमी लाने के लिए सूर्य की ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है । अनुष्टुप् छन्द की स्थिति में ऐसा नहीं होता । अनुष्टुप् : अनुष्टुप् छन्द को सार्वत्रिक रूप से वाक् कहा गया है । वैदिक साहित्य में वाक् के ४ स्तर होते हैं - परा, पश्यन्ती, मध्यमा व वैखरी । वैखरी वाक् वह है जो हमें मर्त्य स्तर पर शकुनों के रूप में सुनाई देती है । अनुष्टुप् छन्द का प्रभाव यह हो सकता है कि परा वाक् का अवतरण वैखरी के स्तर तक हो जाए । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.१०.४ का कथन है कि गायत्री से लेकर जगती तक तीन छन्द तो सत्य हैं, जबकि अनुष्टुप् छन्द जो वरुण से सम्बन्धित है, सत्यानृत धर्म वाला है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.१०.४ में जगती को मित्र और अनुष्टुप् को वरुण कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.१३ का कथन है कि प्रजापति का अपना अनुष्टुप् छन्द अच्छावाक् ऋत्विज को प्राप्त हुआ जिससे अनुष्टुप् को अप्रसन्नता हुई। यह प्रसंग परोक्ष रूप से यह संकेत करता है कि गायत्री छन्द होता ऋत्विज से सम्बन्धित है, त्रिष्टुप् मैत्रावरुण और जगती ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज से। होता का व्यवहार प्रेम से है, मैत्रावरुण का मैत्री से, ब्राह्मणाच्छंसी का कृपा से और अच्छावाक् का द्वेष से- भागवतपुराण ११.२.४६। शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१८ का कथन है कि वास्तु अनुष्टुप् है । वास्तु स्विष्टकृत् है । वास्तु अवीर्य है । इसमें त्रिष्टुप् द्वारा वीर्य रखा जाता है । शतपथ ब्राह्मण ४.५.३.५ का कथन है कि अनुष्टुप् द्वारा भ्रातृव्य के वीर्य का ग्रहण किया जाता है । इन कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वरुण का सत्यानृत धर्म अव्यवस्थित ऊर्जा की स्थिति की अन्तिम अवस्था है । उससे ऊपर केवल मृत्यु ही शेष बचती है । प्राणियों के शरीर में कोशिकाओं के बनने में सतत् रूप से एक जूआ चल रहा है कि मृत्यु जीते या जीवन जीते । जहां जीवनी शक्ति दुर्बल हुई कि मृत्यु अपना ग्रास बना लेती है । चेतना के स्तर पर मृत्यु को ही अनृत अवस्था कहा जा सकता है । वाक् के स्तर पर अनृत वाक् हो सकती है । भौतिक जगत के स्तर पर यह आधुनिक विज्ञान का ब्लैक होल हो सकता है, ऐसा सूर्य जिसकी सारी ऊर्जा अव्यवस्थित हो चुकी है । लेकिन यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अनुष्टुप् छन्द भ्रातृव्य व शत्रु के वीर्य का हरण किस प्रकार कर सकता है । शतपथ ब्राह्मण १.३.२.१६ में आज्य ग्रहण विभिन्न पात्रों द्वारा किया जाता है । गायत्री के संदर्भ में जुहू पात्र से, त्रिष्टुप् व जगती के संदर्भ में उपभृत पात्र से और अनुष्टुप् के संदर्भ में ध्रुवा द्वारा किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.९.७ में सोमयाग के तीन सवनों को गायत्री आदि तीन सवनों से सम्बद्ध किया गया है और सवनों से ऊपर जो कुछ है, उसे अनुष्टुप् कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में गायत्री को द्यौ व अनुमति संज्ञक पूर्णिमा से, त्रिष्टुप् को उषा व राका पूर्णिमा से, जगती को गौ व सिनीवाली संज्ञक अमावास्या से और अनुष्टुप् को पृथिवी व कुहू नामक अमावास्या से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण १३.२.२.१९ में अश्व को आनुष्टुभ कहा गया है । जगती को गौ कहा गया है, जबकि अनुष्टुप् को पृथिवी । जैमिनीय ब्राह्मण १.२७० आदि के अनुसार वाक् मनुष्यधू है जबकि पृथिवी देवधू , वैसे ही जैसे श्रोत्र मनुष्यधू का देवधू रूप दिशाएं हैं, चक्षु का आदित्य है आदि । दूसरे, जब सोम पक्ष पर आते हैं, तो पूर्णिमा को चेतन मन का रूप समझा जा सकता है, चन्द्रमा का वह पक्ष जो प्रत्यक्ष है । दूसरी ओर अमावास्या को अचेतन मन समझा जा सकता है, चन्द्रमा का वह पक्ष जो पृथिवी से परोक्ष दिशा में रहता है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३८ में अभ्रि द्वारा खनन करके मृदा सम्भरण के संदर्भ में मृदा के पृथिवी से सम्भरण का कार्य अनुष्टुप् द्वारा सम्पन्न करने का निर्देश है (अन्य तीन छन्दों गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती का विनियोग भी द्रष्टव्य है)। शतपथ ब्राह्मण ७.२.४.१४ में ओषधि वपन का कार्य अनुष्टुप् छन्द द्वारा सम्पादित करने का निर्देश है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.१५ के अनुसार वृत्र वध के पश्चात् इन्द्र वृत्र वध की अनिश्चितता को देखते हुए अनुष्टुप् में छिप गया और कि अनुष्टुप् ही परा परावत है । इससे यह संकेत माना जा सकता है कि वृत्र वध के पश्चात् ही अनुष्टुप् परा गुण वाला बन सकता है । CHHANDA It is a well known fact in modern sciences that whatever work is done, it leads to increase in entropy, the degree of disorder. In vedic and puraanic literature, this increase in entropy has been given the name of ‘sin’. It has been stated in sacred texts that if one adheres to Chhandas, the verses, then one can avoid this increase in entropy. There are different statements regarding definition of chhanda. At one place, the juice has been called chhanda. At another place, praana, In puraanic literature, when different types of milks are milked from a divine cow, then chhandas become the vessels. The description of a sacrificial place can be helpful in understanding chhandas. As has been shown in the picture, there are mainly three types of fires. The most sacred fire is situated in the east and it’s chhanda is Gaayatri. The middle fire’s chhanda is Trishtup and that of 3rd fire, the homely one, is Jagati. The nature of middle fire provides a chance to connect these with the laws of thermodynamics. Dr. Lakshmi Narayan Dhoot has explained in his paper that the middle fire is connected with chance, the play of dice, one’s luck. Einsteen says that God does not play dice. The law of physics says that no system is perfect enough to convert one type of energy into another with 100% efficiency. Some part of it is lost in noise, heat etc. If there can be any system which can have 100% efficiency, it will go against the second law of thermodynamics. This statement makes it possible to understand Trishtup and Jagati chhandas. Trishtup is connected with efficiency. Then the lowest efficiency of Trishtup is that every event in this world is a chance, the play of dice. The part of energy which is lost in heat, noise etc. while performing work, leads to increase in entropy, increase in degree of disorder. Jagati chhanda deals with this part. This chhanda is connected with lord Yama who delivers from all types of sins. The most important key to understand chhanda is provided by one text Shatapatha Braahmana 8.2.4.16 where the gradual approach to chhanda is mentioned. The first stage is animal. The vedic trait of an animal is that it can have only a limited view of the world. It's senses are not wide. The second stage is a bird. A bird can fly in the sky. Bird's view of the world is more wide. Then comes the stage of chhanda. This stage belongs to gods. Can chhanda can be compared to formation of bands in modern theory of solids? When atoms come together, the charge sphere around them interacts with each other and creates attractive and repulsive forces. This leads to formation of bands and band gaps. The property of a band is that it allows free motion of charge in it. The motion of charge is forbidden in band gap. As will be discussed in connection with Stoma, the formation of chhanda in the realm of consciousness can not be compared with formation of bands and band gaps because the particles forming bands and band gaps obey different types of statistical rules called Fermi - Dirac statistics. On the other hand, it seems that formation of chhanda is limited to Bose - Einsteen statistics only.
Paper presented at World Congress on Vedic Sciences, Bangalore, 9-13 August, 2004 Revised : 27-12-2008 AD( Pausha amaavaasyaa , Vikrama samvat 2065)
Gaayatri: It can be said that one which provides initial impulse to start the functioning of a system is Gaayatri chhanda. According to Newton’s law of motion, a system will not change it’s speed until some outer force is applied on it. This law seems to be too trivial, but it’s importance becomes evident as the principle of cause and effect has developed out of it. In vedic sciences also, Gaayatri may be said to be connected with cause and Jagati with effect. At another place, Gaayatri has been stated as praana and Trishtup as aatmaa. With reference to seasons, Gaayatri has been stated to be the autumn. The quality of autumn has been stated to be Samit. According to Dr. Fatah Singh, One is Sabhaa and one is Samiti. In Sabhaa, every member may have different views, but in a Samiti, every member has resonance. Ushnik : One text states Ushnik chhanda as the neck. It seems that it works as a neck for Gaayatri as a head. Savitaa has been stated to be it’s presiding deity. Trishtup : Trishtup chhanda has been universally stated to be the thunderbolt of Indra, the might. Trishtup has been assigned the task of achieving efficiency. The climax of efficiency is in becoming the weapons of gods. In puraanic texts, different weapons of goddess are formed out of the aura of gods. This aura is the extra energy which has to be given either the shape of weapons of gods or it will go waste. On the basis of qualities of seer Bhardwaaja, it can also be said that the development of clairvoyance is the climax of Trishtup. Jagati : One vedic text associates Jagati chhanda with a class of gods called Vishwedevah – a cluster of all gods. These gods can be said to be an evolved state of manes/pitris. It can be said that those praanas whose entropy has gone high are pitris. Therefore, the main function of Jagati chhanda should be to lower the entropy of a system which has reached in a stated of high entropy. Anushtup : One vedic text states that Gaayatri, Trishtup and Jagati chhandas are true, while the fourth Anushtup chhanda is of true – untrue nature. Anushtup has been universally called as speech. There are four stages of speech – the first which lies at the innermost level and the last which we all speak. Normally, our speech does not unravel truth, but if it is connected with the innermost level, then it can speak truth. One texts states Jagati as god mitra/friend and Anushtup as Varuna, the god of true and false. The other statement is that Anushtup is the chhanda which removed death from yaaga. This indicates that the function of god Varuna through Anushtup is to remove death away. There is a continuous competition between life and death from the gross level to the finest level – who is to dominate. The nature of Anushtup is different from the earlier 3 chhandas. This is indicated by the yaaga procedure. There, in case of Gaayatri, the clarified butter is transferred by the vessel Juhuu, in case of Trishtup and Jagati by the vessel Upabhrit, and in case of Anushtup, by the vessel named Dhruvaa. Pankti : It has been stated about Pankti chhanda that this is indicator of progress in upward direction. There are 5 lines in a Pankti chhanda and it is possible that these may be symbolic of hair, skin, flesh, bone and bone marrow. Pankti has been stated to be the wife of yaaga. Connection of chhandas with seasons : Gaayatri, Trishtup, Jagati, Anushtup and Pankti have been connected with 5 seasons – autumn, summer, rain, winter and chill/frost respectively. Thus each chhanda should reflect the characteristics of that particular season. To how much extent this is true, it will be examined later. Connection of chhandas with directions : As has been stated elsewhere also, east is connected with the birth of original cause, west with how to nullify the fruits of actions, south with achieving efficiency and on lower side, with chance. North is connected with definiteness, above chance. Gaayatri is connected with east, Trishtup with south, Jagati with west and Anushtup with north. Anushtup has also been stated to be connected with downward direction, Dhruvaa. Understanding chhanda through Somayaaga :In somayaaga, there are mainly two sections of the sacred sacrificial place – the initial and final. Regarding chhandas, the final place can provide much insight. It may be expected that whatever is the shape of the final place, whatever are the characteristics of the final place, these may be existing in the initial place in seed form. It is expected that for achievement of the final place, one should have realization of a year. In mythology, an year is formed by the association of the trio of sun, earth and moon. In outer world, the earth is automatically moving around the sun. But in spirituality, one has to make efforts that his earth moves around its axis as well as around the sun. Similarly for moon also. Sun, earth and moon are supposed to represent praana/life, body and mind. The most important fact to note at the final place is the presence of a wooden post at the far east boundary. This can be taken to be indicating the cause of all causes. There is a statement in sacred texts that gods, after fulfilling their purpose, put it upside down so that nobody may be able to succeed. Gaayatri in somayaaga : One important aspect of Gaayatri chhanda which appears in somayaaga is the silent chanting by a priest at dawn in eastward direction. It has been stated that this chanting of mantras should be done when no bird has started it’s chirping. It means that Gaayatri affects at the innermost level. The chirping of birds can be taken as our inner voice. It has been stated in a sacred text that one has to inter Gaayatri through hair, Trishtup throughl skin, Jagati through flesh, Anushtup through bone and Pankti through bone marrow. This statement exists with variations in other texts. The noticeable thing is that hair on animal body have been equated with herbs on the earth. And the important characteristic of herbs is that these grow against the direction of gravitational force of the earth. One line out of three of Gaayatri chhanda has 8 letters in it and it can be said that the attracting force gradually develops from the first letter to the 8th one. Gaayatri has been called as the mouth in the body. The function of mouth is to taste the food, to develop taste in food. Just as there exist conscious and unconscious minds, in the same way the taste may be connected with conscious factor of a particular food.
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